Friday, 19 April 2013

हँसता मीडिया रोता पत्रकार ......


आज के दौर में मीडिया शब्द आम हो चूका है. आम लोग, सरकारी कर्मचारी या फिर नेता हर किसी के जुबान पर मीडिया होता है. सबसे ज्यादा मीडिया का शब्द नेताओं के जुबान पर होता है. आए दिन उनके जुबान पर यही वाक्य सुनाई देता है कि ये सारा कुछ मीडिया का किया कराया है, मीडिया ने इसे तोड़ मरोड़कर कर पेश किया है. एक क्षण ऐसा लगता है कि आज भी मीडिया समाज और देश के लिए बहुत अच्छा काम कर रहा है लेकिन अगले ही क्षण अहसास होता है कि मीडिया तो बिजनेस मेन और राजनेताओं कि कठपुतली बन चूका है. मीडिया वही खबर प्रकाशित या प्रसारित करता है जो बिजनेस मेन और नेता चाहते हैं. मीडिया अपनी जिम्मेदारी ताख पर रखकर वही चीज़ लोगों के सामने लाती है जो व्यापार की दृष्टि से सही हो. मीडिया की मज़बूरी यह है कि सारे मीडिया ओर्गेनिजेशेन के मालिक (ओनर ) या तो कोई नेता है या फिर कोई बिजनेस मेन है और दोनों एक दूसरों को नाराज़ नहीं करना चाहते, क्यूँकि साथ मिलकर चलने में ही दोनों का फायदा है. यही कारण है कि आज मीडिया कि विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हो रहे हैं. लोगों का विश्वास मीडिया पर से उठता जा रहा है.
                                                    ज्यादातर छात्र एवं छात्राएं मीडिया के क्षेत्र में नाम और पैसे के  साथ-साथ समाज सेवा की भावन लिए हुए आते हैं पर कटु सत्य कुछ और हीं है. इस क्षेत्र में नाम और पैसे तो ज़रूर हैं पर कुछ एक लोगों के लिए, खासकर उनके लिए जो मीडिया के उच्च पदों पर विराजमान हैं. बाकि मीडियाकर्मियों का तो बुरा हाल है.मेरे कई होनहार दोस्त मीडिया से जुड़े हुए हैं. वे दो लोगों का काम अकेले करतें हैं, साथ ही इनसे 10 से 12 घंटे काम लिया जाता है पर वेतन के नाम पर उन्हें मात्र 10 या 12 हज़ार रुपयें मिलतें हैं. इनकी योग्यता भी कम नहीं है इन्होने पत्रकारिता में मास्टर डिग्री कर रखी है. ऐसी बात भी नहीं की इनमें दक्षता (स्किल) की कमी है या फिर प्रतिभा की कमी है. मौका मिलने पर ये उच्च पदों पर आसीन  लोगों से भी अच्छा काम कर सकतें हैं. अफ़सोस की बात तो ये है की मीडिया ओर्गेनैजेशन ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने के चक्कर में इनके दक्षता और प्रतिभा को नज़रंदाज़ कर रहा है. बेरोज़गारी का आलम तो देखिये कुछ पत्रकार तो 5 हज़ार से 6 हज़ार पर भी काम कर रहे हैं. जबकि इनके पास उच्च शिक्षा वाली डिग्री है. कुछ पत्रकारों को तो यह कहा जाता है कि आप खबर पर कम ध्यान देकर विज्ञापन पर ज्यादा ध्यान दें और ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन लायें. यानि अब पत्रकार भी मार्केटिंग का काम करने लगा है. अगर भूल से कोई पत्रकार महगाई का हवाला देकर पैसे बढ़ाने कि मांग करता है तो उनका सीधा सा जवाब होता है कि आप कुछ ज्यादा नहीं मांग रहे या फिर, तो कही और नौकरी ढूंढ़ लो.
                                           मीडिया ओर्गेनैजेशन के मालिक पैसों का ढेर इकठठा कर रहे हैं वही इसके कर्मचारी कम पैसे का रोना रोतें रहतें हैं पर इनकी सुनने वाला भी कोई नहीं है. आश्चर्य कि बात तो ये है कि जो मीडिया लोगों कि आवाज़ बुलंद करता है वही मीडिया अपनी आवाज़ नहीं उठा रहा है और लगातार शोषण का शिकार हो रहा है.आज के दौर में पत्रकार पैसे-पैसे के लिए मोहताज़ हो रहे हैं. यही कारण है कि देश का चौथा स्तम्भ कहा जाने वाला मीडिया आज झूठ और बेईमानी का स्तम्भ बनता जा रहा है जो कि एक लोकतान्त्रिक देश के लिए किसी भी दिष्टिकोण से सही नहीं है. मेरे कुछ दोस्त मेरे इन बातों से इत्तेफाक नहीं रखते होंगे पर मैं ये दावे के साथ कहता हूँ कि अगर सारे मीडिया वाले सच में दिल से मेरी बातों पर अमल करेंगे तो मेरी इन
बातों को नकारेंगें नहीं .
                                                                       गजेन्द्र कुमार

Thursday, 18 April 2013

तो क्या सीबीआई की तरह हीं सरकार के अधीन हो जाएगी न्यायपालिका ???


 जजों (न्यायधिशों) की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव लाने का मन सरकार बना चुकी है और इसके लिए जल्द हीं प्रस्ताव् लाने वाली है. सरकार के इस नए प्रस्ताव् के अनुसार जजों (न्यायधिशों) की नियुक्ति प्रक्रिया में अब देश के कानून मंत्री के साथ-साथ राष्ट्रपति द्वारा मनोनित दो कानूनविद भी होंगे. जबकि अभी जजों (न्यायधिशों) की नियुक्ति प्रक्रिया में सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम न्यायधिश लोग ही भाग लेते हैं, जो की जजों की नियुक्ति करतें हैं. सरकार के इस नए प्रस्ताव् के आने के बाद न्यायधिशों की नियुक्ति में सरकार का दखल भी होगा. सरकार अपनी मर्ज़ी के अनुसार न्यायधिशों की नियुक्ति करेगा और उसके बाद सीबीआई की तरह न्यायालय (कोर्ट) भी सरकार की कठपुतली बनकर रह जाएगी. सरकार के खिलाफ कोई भी फैसला देना मुश्किल हो जायेगा. सीबीआई की तरह न्यायालय के फैसलों में भी सरकार की दखलअदाज़ी बढ़ जाएगी.

                                        सरकार के इस कदम से तो यही लगता है की सरकार अब न्यायालय को भी अपने नियंत्रण में करना चाहती है ताकि सरकार के खिलाफ आने वाले फैसले पर विराम लग सके. न्याय में भी हेराफेरी करके सरकार अपने दामन पर लगे भ्रषटचारों के दागों को मिटाना चाहती है. अगर सरकार की मंशा नेक होती तो सरकार सबसे पहले सीबीआई को अपने नियंत्रण से मुक्त करती जिससे सीबीआई स्वतन्त्र होकर अपना काम करती. सीबीआई में सरकार की दखलअदाज़ी किसी से छुपी हुई नहीं है. तमिलनाडु की पार्टी (डी.एम. के) का सरकार से समर्थन वापिसी के तुरंत बाद उसी पार्टी की नेता के दफ्तर पर सीबीआई के छापे पड़ना, कोयला घोटाले में सुप्रीम कोर्ट में रिपोर्ट पेश करने से पहले सीबीआई का सरकार से मिलना, ऐसे कई उदाहरण हैं जो सीबीआई पर सरकार के नियंत्रण को साबित करती है. इस कारण सीबीआई अपना काम सही ढंग से नहीं कर पाती. सीबीआई पर से दिनोदिन लोगों का विश्वास उठता जा रहा है. अगर न्यायालय में भी सरकार का दखल होगा तो स्वाभाविक है की न्याय पर उँगलियाँ उठेगी और धीरे धीरे न्यायालय पर से भी लोगों का विश्वास कम हो जायेगा जो की एक लोकतंत्रिक देश के हित में बिलकुल नहीं होगा .
                               
                                                                                                                                        गजेन्द्र कुमार

Wednesday, 17 April 2013

बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट

बिहार में राज्य सरकार द्वारा मीडिया पर दबाव की ढेर सारी शिकायतें मिलने के बाद प्रेस काउंसिल औफ इंडिया ने २४ फ़रवरी २०१२ को एक तीन सदस्यीय टीम का गठन किया . इस टीम में राजीव रंजन नाग के अलावा अरुण कुमार और कल्याण बरुआ शामिल थे . राज्य की मीडिया बिरादरी में जारी असंतोष और पत्रकारों को प्रताड़ित और अपमानित किये जाने
की कई सारी घटनाएँ सामने आई है .