Tuesday, 10 December 2013

‪दीप‬.......

भटकती आत्माओ के शहर में 
अपने व्जूद को दांव पर लगा कर 
किसी से टूट कर चाहना?

हर इक शख्स अपनी मौत का हरकारा
मैं उनमें जिंदगी तलाश कर रही थी?

अपने आपसे भागते लोग मिले मुझे हर जगह
मैं ये सोच कर दुखी होती रही
ये सब मुझसे भाग रहे हैं?

मुझे लगा मैं हु सबसे ज्यादा बिखरी
लेकिन दुनिया में संवरा हुआ कोई नहीं तब
अपने आप के खुद को ज्यादा करीब पाया

एक अनजान दुनिया में तुच्छ प्राणी
पता नहीं क्यों सैकड़ों वर्षों से है प्यासा
ये तृष्णा ! कब तक जलायेगी हमें?

इक मैं ही हूँ जो हलाहल पी ...
निकाल सकती सब को
जो हो मुझसे जुड़े..खुद से भागते?

पता नहीं क्यों लोग इतना खुश हो लेते है?
जबकि कुछ भी नहीं है खुश होने की वजह?
न है कोई बात दुःख मनाने की
न बात है मरते मरते जीने की।
बात है सिर्फ़ है "मरने के लिए जीने की"
या जीते जीते मर जाने की"


‪#‎दीप‬

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