Sunday, 13 April 2014

बस यूँ हीं ...

सुबह होती है, शाम होती है, उम्र यूं ही तमाम होती है....

                   मोबाइल का अलार्म सुबह-सुबह कोयल की आवाज़ में कूक उठता है। सुबह की नींद बड़ी प्यारी होती है। कोयल की कूक से नींद टूट तो जाती है पर आंखें नहीं खुलती और फिर अनमने ढंग से, आंखें बंद किए हुए, हाथ बरबस मोबाइल सेट की ओर बढ़ता है और फिर 5 मिनट और सो जाने की चाहत के साथ, कोयल को खामोश कर लेटा रहता हूं। कमरा छत पर होने की वजह से सुबह-सुबह की ठंडी हवा मेरे तन को स्पर्श करने लगती है। बड़ा अच्छा लगता है, आधी नींद में होने के कारण ठंडी हवा को अच्छी तरह महसूस भी करता हूं। जागने का जी नहीं करता पर थोड़ी देर बाद हीं सूरज की चंचल किरणों की रोशनी भी छत के मुंडेरों से टकराकर मेरी आंखों से शरारत करने लगते हैं और फिर मुझे जागना हीं पड़ता है। अंगड़ाईयां लेता हुआ बिस्तर से उठता हूं और जम्हाई लेते हुए डगमगाते कदमों से कमरे से बाहर आकर, ठंडी हवा के बीच तेज़ सांसें लेकर खुद को तरोताज़ा करता हूं। उसके बाद नहा-धोकर ऑफिस जाने की तैयारी करने लगता हूं। इस वक्त मुझे अपनी यूनिवर्सिटी के दोस्त मुझे बहुत याद आते हैं, क्योंकि यूनिवर्सिटी के अपने दोस्तों के ग्रुप में सुबह-सुबह सबसे पहले मैं हीं जागता था फिर दोस्तों के कमरे में जाकर उनकी नींद खराब करता था। उन्हें परेशान करके और गालियां देकर जगाता था और कभी-कभी तो मैं काफी गांलियां भी सुनता था। इस तरह उनकी तो आदत हीं बन गई थी की बिना मेरी गाली सुने उनकी नींद हीं नहीं खुलती थी। उसके बाद हमलोग इकठ्ठे ब्रेकफास्ट करने जाते थे। यहां ब्रैकफास्ट करते समय खानाऱूम (मैस) की शरारतें भी याद आती है, जब हम एक-दूसरे के प्लेट से पराठे और दहीं छीन कर खा जाते थे। खैर यादें तो याद करने के लिए हीं होती है।

                नास्ता करने के बाद ऑफिस जाने के लिए मैट्रो का रूख करता हूं। शुरूआत में मुझे मैट्रो से सफर करने में पता नहीं क्यों, थोड़ी घबराहट होती थी लेकिन अब ठीक है। मैट्रो की सफर के भीड़ का हिस्सा मैं भी बन चुका हूं। ऑफिस टाइम में तो इतनी भीड़ होती है कि मैट्रो में पैर रखने तक की जगह नहीं होती। फिर भी लोग बिना किसी परेशानी के सफर करते दिखते हैं। लोगों को आदत हो गई है या फिर यूं कहें की और कोई रास्ता भी तो नहीं है। खैर जो भी हो मैट्रो में मुझे तरह-तरह के लोग या फिल्मी स्टाइल में कहें तो किरदार देखने को मिल जाते हैं। उन किरदारों को मैं चुपचाप देखता हूं और एंज्वाय करने की कोशिश करता हूं तो कभी-कभी कुछ सीखने की भी कोशिश करता हूं। चुनावी महौल है इस कारण मैट्रो में भी केजरीवाल और मोदी के बारे में अक्सर लोगों के रोचक चर्चे सुनने को मिल जाते हैं।
  
            मैट्रो में कई बार नोक-झोंक भी देखने को मिल जाता है। मैने देखा है कि कैसे महिलाएं अपनी सीट के लिए पुरूषों से लड़ जाती है। अच्छा है महिलाएं अब जागरूक हो गई हैं, अपने हक के लिए लड़ना सीख गई हैं। पर मुझे बुरा तब लगा जब मैट्रो में एक वृद्ध वाली जगह पर एक लड़की बैठी थी और एक लगभग 70 साल का बूढ़ा कमज़ोर व्यक्ति उसके सामने खड़ा था लेकिन उसने सीट देने की ज़रा भी तकलीफ़ नहीं की। जबकि उस व्यक्ति की आंखे बार-बार उसकी ओर देख रही थी कि शायद लड़की अब कहेगी की आप बैठ जाओ अंकल, लेकिन ऐसा न हुआ। इस बात से ये साफ हो जाता है कि हम और आप हर कोई अपने हक और अधिकार के लिए तो लड़ना जानते हैं लेकिन हम अपना फ़र्ज और कर्त्तव्य नहीं निभाना चाहते।

                एक मजे की बात करता हूं। और वो ये है कि मैनें गौर किया है कि यहां दिल्ली में लोगों को एक दूसरे से प्यार हो या ना हो लेकिन दो जोड़ों (कपल) के बीच का प्यार साफ दिख जाता है। बाकी मुझे नहीं पता की ये वाकई रुह वाला प्यार है या नहीं, लेकिन उनकी हरकतों से बाहर वाला प्यार तो मैट्रो में दिख ही जाता है। इस मामले में भी दिल्ली ने काफी तरक्की कर ली है। अच्छा है लोगों को पूरी स्वतंत्रता का एहसास होता है, कोई कुछ भी करें, कहीं भी करें। कोई रोकता नहीं। इन चंचल शोख हसीनाओं को देखकर मेरे मासूम चेहरे के अंदर छुपा चंचल दिल भी मचल उठता है और बरबस नजरें बार-बार गुस्ताखी करने लगते हैं। तांक-झाक का सिलसिला कमबख्त मैं चाहकर भी नहीं रोक पाता। क्या करूं कभी-कभी काफी मज़बूर हो जाता हूं, इन मामलों में अपने आप को कंट्रोल नहीं कर पाता। मुझे थोड़ा बुरा तब लगा जब यहां मैने काफी कम उम्र वाले बच्चे जो अभी स्कूल में ही पढ़ते हैं। मैट्रो के अंदर ऐसी हरकत करते हैं, जिसे देखकर मेरी आंखें झुक गई। लेकिन उनकी हरकतें नहीं रुकी, पास में ही एक बूढ़े अंकल भी थे। चेहरे से ऐसा लग रहा था की वो आग बबूले हो रहे हैं पर उन्होनें कुछ नहीं कहा। मुझे नहीं पता ऐसी आजादी सही भी है या गलत। इसे आज़ादी कहें या कुछ और।

                        ये तो बात हो गई मैट्रो की। मैट्रो से सफर करने के बाद ऑफिस जाता हूं और फिर वापिस भी मैट्रो से हीं आता हूं। शाम को कमरे में थोड़ी देर आराम कर लेता हूं, थोड़ी देर लैपटाप के साथ टाइमपास कर लेता हूं। फिर रात के खाने के बाद। छत पर टहलते हुए मोबाइल से बातें करना शुरू करता हूं। आजकल मोबइल पर बातें थोड़ी ज्यादा होने लगी है। बातें करते हुए मैने एक बात गौर की है की रात को मोटी औरतें गली में या फिर छत पर ज्यादा टहलती दिखाई देती हैं, लेकिन एक भी मर्द नहीं दिखते। इसका ये मतलब बिल्कूल नहीं है कि मर्द मोटे है ही नहीं। इससे ये पता चलता है कि औरतें स्वास्थ्य को लेकर ज्यादा जागरुक हैं। इन मोटे लोगों को देखकर सबसे पहले मन में ये बात आती है की इनसे थोड़ा-बहुत मोटापा मुझमें आ जाता तो कितना अच्छा होता, पर ऐसा हो नहीं सकता। इसके बाद सो जाता हूं और फिर सुबह कोयल की कूक से नींद खुलती है। इस तरह सुबह होती, शाम होती और दिन गुजर जाता है।

                                                                                                               गजेन्द्र कुमार


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