Wednesday, 31 July 2013

बँटवारा....

बँटवारा एक ऐसा शब्द है जिससे आजतक किसी का हित नहीं हुआ है. अब तेलंगाना आन्ध्र प्रदेश से अलग  होकर एक नया राज्य बनने जा रहा है...लोगों का तर्क है कि छोटे राज्य बनने से राज्य का विकास ज्यादा होगा ...२००० में इसी तरह तीन नये राज्य बने थे झारखण्ड, उत्तराखंड तथा छत्तीसगढ़...इन राज्यों के बने हुए १३ साल हो गये और इनका कितना विकास हो गया ये हम सभी जानते हैं...अगर छोटा राज्य विकास का पैमाना होता तो फिर छोटे राज्य विकास में सबसे आगे होते पर ऐसा बिलकुल नहीं है... अगर छोटे राज्य या छोटे क्षेत्र होना ही विकास की गारंटी होती तो भारत के बंटवारे के बाद आज पाकिस्तान  विकास में हमसे काफी आगे होता, उसी तरह बांगलादेश को भी भारत से आगे होना चाहिए था और भारत को चीन से आगे होना चाहिए था पर क्या ऐसा है नहीं ना ...राज्य या देश का विकास अच्छे प्रशासन और अच्छी नीतियों से होता है ना की राज्यों को बांटकर छोटा करने से .. ये राजनेता अपने हित को देखकर नये राज्यों का निर्माण कर देते हैं... आकड़ों की बाजीगरी दिखाकर लोगों के सामने ऐसे आंकड़े पेश करतें हैं कि वाकई ऐसा लगता है की छोटे राज्य बनने से राज्य का विकास हो रहा पर क्या वाकई ये सच्चाई है, मुझे तो ऐसा बिलकुल नहीं लगता क्यूँकि लोगों को आज भी गरीबी, भुखमरी और बेरोज़गारी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है... आकड़ों की बाजीगरी ही है कि २८ रूपये कमाने वाले को सरकार गरीब नहीं मानती ...बंटवारे हमारे परिवार के बीच भी होतें है और बँटवारा बहुत दुखदायी होता है ..बँटवारा अपनों के बीच नफरत पैदा करती हैं, बटवारे के बाद हम स्वार्थी हो जाते हैं...हम दूसरों के बारे में सोचना बंद कर देते हैं... पाकिस्तान के बंटवारे ने लोगों को कितना दुःख दिया , इतनी नफरत पैदा की कि आज भी पाकिस्तान को हम अच्छी नज़र से नहीं देखते..शहरों में विकास तेज़ी के साथ हो रहा है यहाँ का परिवार भी काफी छोटा होता और लोगों का दूसरे लोगों के साथ कितना संपर्क होता है और ये लोग दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं ये हमें पता हैं....तेलंगाना राज्य की मंजूरी मिलने के बाद कई प्रदेशों में कई और नये राज्यों की मांग जोर पकड़ रही है... पश्चिम बंगाल से गोरखालैंड, महाराष्ट्र से विदर्भ, बिहार से मिथलांचल की माग हो रही है तथा उत्तरप्रदेश को चार राज्यों में बटने की मांग हो रही है...ऐसा नहीं था की सरकार को इस बात की आशंका नहीं थी पर सरकार को तो समय देखकर अपना हित ही देखना होता है ना...भुगतना तो आम आदमी को पड़ता है ...मैं तो बस इतना जनता हूँ कि बंटवारा किसी भी समस्यां का समाधान नहीं है...ये तो बस लोगों को भाषा, धर्म और जाती के नाम पर बंटा जा रहा है,, जो लोगों के बीच नफरत तथा वैर का बिष घोल रही है...
                                                                                                                        गजेन्द्र कुमार 

Monday, 29 July 2013

ये जो पब्लिक है सब जानती है ....

ये जो पब्लिक है सब जानती है ....

 इस बात से मैं भी इतेफाक रखता हूँ कि ये जो पब्लिक है सब जानती है... पब्लिक से कुछ भी छुपा नहीं है...जैसे की कल-परसों ग्रेटर नोएडा की एसडीएम और आईएएस अफसर दुर्गा शक्ति नागपाल को उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार ने सस्पेंड कर दिया था। इसके पीछे सरकार धार्मिक सौहार्द को ख़तरे में डालने की वजह बता रही थी। अब पब्लिक यानी जनता अच्छी तरह जानती है की आईएएस अफसर के कड़े कदमों से सौहार्द ख़तरे में था या फिर यू.पी सरकार को खतरा था... हर ईमानदार अफसर को ऐसे ही कुछ न कुछ वजह बताकर या फंसाकर सरकार बाहर का रास्ता दिखाती है... सरकार को ऐसे अफसर चाहिए जो सरकार की हाँ में हाँ मिलाये और जनता की सेवा न करके सरकार की सेवा करे. जनता सब जानती है की अफसर को हटाने की वजह क्या है.... पब्लिक को सरकार के प्रति नाराज़गी जताने की जगह पब्लिक तो खुश होकर कहती है कि मैं तो जानता हीं था एक न एक दिन तो ऐसा होना ही था...ऐसी पब्लिक कुछ जाने या न जाने क्या फर्क पड़ता है...पब्लिक सब जानती है की कॊन नेता भ्रष्ट है और कोन नहीं ..फिर भी मजाल है की ईमानदार व्यक्ति को वोट करेंगें .....नेतागिरी आजकल वयवसाय बन गया है, जितना ज्यादा इन्वेस्टमेंट उतना ज्यादा फायदे का सौदा है नेतागिरी ...नेता आजकल सेवा करने के लिए नहीं सेवा लेने के लिए बन रहे हैं... पब्लिक ये भी जानती है कि  नेता हमारे सेवा करने के लिए बनते हैं फिर भी पब्लिक उनकी सेवा में लगी होती हैं. और तो और ज्यादातर पढ़े-लिखे अफसर भी नेताओं की भक्ति में ही लीन रहते हैं...ना जाने कैसे ये पढ़े-लिखे अफसर भी भ्रष्ट और अनपढ़ नेताओं की चापलूसी करना पसंद करते हैं ???  ना जाने कैसे इनका ईमान और ज़मीर इसकी इज़ाज़त देता है ????  और जो नेताओं की भक्ति नहीं करते उनका क्या हश्र होता है ? ये  पब्लिक अच्छी तरह जानती है... बेचारे ये अफसर कब से पुलिस सुधार की मांग कर रहे हैं ताकि ये नेताओं के हाथ की कठपुतली ना बने पर इनकी सुनता कोन है ....नेताओं के सामने ये बेचारे नज़र आतें हैं पर पब्लिक के सामने आते ही यही शेर बन जाते हैं.....बड़ी अजीब विडंबना है....मीडिया वाले चिल्लाते रहतें हैं ..ये पब्लिक है सब जानती हैं ये जो पब्लिक है ....ऐसे मरे हुए पब्लिक के जानने ना जानने से क्या फर्क पड़ता है ....मीडिया जी अगर आप चाहो तो मरे हुए पब्लिक को भी जगा सकते हो ...पर आप तो बस चिल्लना जानते हो ना, क्यूँ की  टी. आर. पी(TRP) भी तो इसी से बढती है ना ...मीडिया जी आप भी ना बस कहने के लिए आज़ाद हो ...है ना ??? अगर मैं गलत कह रहा हूँ तो ये भी चिल्ला-चिल्लाकर कहना, क्यूँ कि ये जो पब्लिक है सब जानती है .....

                                                                                                                          गजेन्द्र कुमार 

Saturday, 27 July 2013

एक चिट्ठी माँ के नाम .......

मेरी प्यारी माँ ,
                   सादर प्रणाम .

                  माँ, यूँ तो तुम हमेशा याद आती हो पर कभी-कभी बहुत ज्यादा याद आती हो. खासकर तब, जब मैं यहाँ भूखा होता हूँ और कोई पूछने तक नहीं आता कि खाना खाया की नहीं और एक तुम हो जो की भूखे नहीं होने पर भी बार-बार खाने के लिए कहती थी. बार-बार खाने के लिए पूछने के कारण मैं झल्लाकर तुमपर गुस्सा हो जाता था फिर भी तुम नहीं मानती थी और खाना खिलाकर ही दम लेती थी. माँ कभी-कभी यहाँ का बेस्वाद खाना खाते वक़्त वो बातें याद आतीं है, जब घर होने पर मैं तुम्हारे साथ एक हीं थाली में खाना खाता था तो भाभी अक्सर कहती थी कि आप अब बच्चे नहीं रहे जो माँ के साथ एक ही थाली में खाओ. इतना कहतें ही हम दोनों हँस पड़ते थे और भाभी भी मुस्कुराते हुए वहीँ बैठकर मुझे छेडती और परेशान करने लगती.  बचपन खत्म होते ही पढाई को लेकर मैं हमेशा तुमसे दूर ही रहा. आपने भी यही सोचा होगा कि पढ़ाई खत्म होने के बाद मेरा बेटा मेरे पास रहकर नौकरी करेगा. सब कुछ इतना आसान कहाँ है माँ, नौकरी मिल भी जाये तो पता नहीं घर से कितना दूर होगा....पढाई और नौकरी रिश्तों के बीच दूरियां पैदा कर रही है. ज़िन्दगी के लिए दोनों ज़रूरी है पर क्या रिश्ते ज़रूरी नहीं हैं ??? रिश्तों के बिना ज़िन्दगी भी, क्या ज़िन्दगी है ??? माँ कभी-कभी ना इस सुनसान कमरे में अपने रिश्तेदारों की बहुत याद आती है, उस वक़्त बस खट्टी-मिट्ठी यादों के पिटारे से पुरानी बातें, छेड़खानियाँ, हँसी-ठिठोली याद कर मुस्कुरा लेता हूँ और सोचता हूँ ऐसा वक़्त कभी ना कभी फिर मिलेगा. बड़ा अच्छा लगता है पुरानी यादों को ताज़ा करने में पर माँ तुम बहुत याद आती हो, कभी कभी तो अकेले में रो भी लेता हूँ.

                    हरबार छुट्टी खत्म होने पर जब मैं घर से विदा होता हूँ तो दिल भारी हो जाता है. जब तुम विदा करते समय अपनी डबडबाई आखों के साथ मुझे गले लगाती हो और फिर मेरे चेहरे को चूमने के बाद हाथ हिलाकर विदा करती हो तो कलेजा फट सा जाता है. लगता है जैसे छोटे बच्चे की तरह तुमसे लिपटकर मुझे दूर न करने की ज़िद करूँ पर कम्बखत मैं ऐसा भी नहीं कर सकता. मुझे ये भी पता है माँ, तुम्हारी आँखों से बहते खामोश आसूँ ये चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे होतें हैं कि बेटा मुझे छोड़कर मत जा और फिर तुम दिल को समझा लेती हो कि बेटा कुछ बनने जा रहा है... कितना मुश्किल होता होगा वो पल माँ है ना.  तुम हमेशा कहती हो कि मेरी एक बेटी होती तो अच्छा होता पर बेटी ना होने के वाबजूद बेटी की विदाई जैसा पल बार-बार तुम्हें मिलता है... तुम महान हो माँ जो चुप-चाप हर बार दर्द को सह लेती हो. मुझे बड़ा दुःख होता है माँ , मैं बहुत शर्मिंदा हूँ माँ कि मैं आज भी आपके पास नहीं हूँ जबकि आपकी उम्र ढल रही है, आप अक्सर बीमार रहतीं है, इस वक़्त आपको मेरी बहुत ज़रूरत होती है और मैं यहाँ बैठकर मोबाइल से बस आपका हाल पूछता रहता हूँ..... तुम महान हो माँ, इतने कष्ट के वाबजूद मुझे रुकने के लिए नहीं कहती. ये सब सिर्फ मेरे लिए करती हैं ना आप, ताकि मेरी जिंदगी बन जाये पर माँ आप ही तो मेरी जिंदगी हो ...
                                                            जी करता है सबकुछ छोड़कर तुम्हारे पास आ जाऊ पर इससे भी तो तुम्हे दुःख हीं होगा और मेरा कमीना दिमाग भी इसकी इज़ाज़त नहीं देता पर कब तक इस कमीने दिमाग कि बात मानता रहूँ ,आखिर कब तक माँ ??? तुम बहुत भोली हो माँ जो तुम समझती हो कि मुझे नौकरी घर के पास ही मिल जाएगी और मैं तुम्हारे साथ रहूँगा. जहाँ तक मुझे दिखाई दे रहा है अभी साथ होने के कोई आसार नहीं है . मुझे माफ़ करना माँ, मैं तुमपर कई बार गुस्सा भी हो जाता हूँ जैसेकि इसबार घर से वापिस आने के वक़्त तुम मेरे लिए अपने हाथों से बने पकवान मेरे बैग में डाल रही थी और मैंने मना कर दिया कि मत डालो. फिर भी आपने डाल दिए और मैं आप पर गुस्सा हो गया. पता नहीं क्यूँ वापसी के वक़्त मेरा दिमाग कुछ गर्म हो जाता है.. आखिर वो पकवान किसके लिए दे रही थी, मेरे लिए ही ना , बाद में ट्रेन में मेरी भूख को शांत इसी पकवान ने ही किया. तब मुझे अपने आप पर अफ़सोस और आपके प्यार पर गर्व हो रहा था.
                                                                अभी भी मैं छुट्टी होने का इतज़ार करता रहता हूँ ताकि आपका लाड़-दुलार पा सकूँ. घर आने पर मेरी पसंद की चीजें बनाकर मुझे खिलाती हैं और आप कितना खुश होती हो, कितना सुकून होता है आपके चेहरे पर, यही तो माँ होती है, मैं आपको कभी खोना नहीं चाहता माँ... आपकी जगह कोई भी नहीं ले सकता माँ... मैं बहुत खुदगर्ज़ हूँ माँ, आपने मेरे लिए क्या कुछ नहीं किया पर मैं चाहकर भी आपके लिए कुछ नहीं कर सका...हो सके तो मुझे माफ़ करना ....मुझे पता है ये ख़त पापा आपको पढ़कर सुना रहे होंगें और उन्हें दुःख हो रहा होगा कि मेरे बारे में कुछ नहीं कहा.. पापा ये सारी बातें सिर्फ माँ के लिए नहीं है आपदोनों के लिए है ...वैसे भी माँ शब्द इतना प्यारा लगता है कि माँ कहना बड़ा अच्छा लगता है ...आपसे भी मैं उतना ही प्यार करता हूँ जितना माँ से ...वैसे नाराज़ मत होइएगा जल्दी ही मैं आपके नाम की भी चिट्ठी लिखूंगा ...
                                                                         
                                                                                                                आपका मज़बूर बेटा .....

   
                                                                                                                                          गजेन्द्र कुमार 

बस यूँ ही ...


 माफ़ करना आधुनिकता के इस ज़माने में मैं चिट्ठी को याद करने की गुस्ताखी कर रहा हूँ. एक तरफ जहाँ लोग चिट्ठी को भूल रहे हैं वही मुझे पता नहीं क्यूँ अब चिट्ठी लिखने का जी कर रहा है. मुझे याद है मैंने बचपन में कई चिट्ठियां अपने घर पर भेजी थी जब मैं घर से दूर हॉस्टल में रहा करता था और तब मेरे घर पर टेलीफोन नहीं हुआ करता था. मेरी चिट्ठी पढ़कर माँ की आँखें डबडबा जाती थी और पापा बड़े खुश होते थे की मेरा बेटा बहुत अच्छा लिखता है. चिट्ठी लिखने के लिए मैं सब दोस्तों को झूठ बोलकर अकेले होने का मौका ढूंढता था. हॉस्टल में अकेले होने का वक़्त कम ही मिल पाता था इसिलए मैं कभी-कभी दोस्तों से बहाना बनाता और शाम को जब वो खेलने जाते थे तब मैं चिट्ठियां लिखा करता था. देर-सबेर टेलीफोन ने मेरे घर में भी दस्तक दे ही दिया उसके बाद तो चिट्ठी से रिश्ता ऐसा टूटा की आज याद आया. टेलीफोन आने के बाद घर में टेलीफोन की घंटी बजती तो घर में दूर बैठा मैं दौड़कर टेलीफोन उठा लेता था. हालाँकि कोई भी फ़ोन मेरे लिए नहीं होता था फिर भी फ़ोन की घंटी बजने पर मैं दौड़कर फ़ोन उठा लेता था. फ़ोन ज्यादातर पापा के लिए होता था या फिर पड़ोसिओं के लिए, पड़ोसिओं को बुलाने का काम भी मैं ही करता था. टेलीफोन के प्रति बढ़ते लगाव से चिट्ठी  को बहुत दुःख हुआ होगा. धीरे-धीरे चिट्ठी का वर्चस्व कम होता गया पर चिट्ठी के इस बुरे दौर में भी प्रेम-पत्र काफी फल-फूल रहा था. मुझे याद है स्कूल के कई दोस्त कैसे अपने प्रेम-पत्र लिखवाने के लिए मुझसे गुज़ारिश करते थे. उस प्रेम पत्र में शेरो-शायरी की भरमार होती थी जो की मेरे पास पड़ी इक  शेरो-शायरी की डायरी से मेरे दोस्तों द्वारा चुनी जाती थी. प्रेम पत्र में किसी डाकिये की ज़रूरत नहीं होती थी. डाकिये का काम कोई दोस्त या लड़की की कोई नजदीकी करता/करती थी. प्रेम पत्र में प्रेमी अपनी पूरी भावना लिखता था बड़ी मेहनत से कोई प्रेम पत्र तैयार होता था. इतनी मेहनत के वाबजूद भी शायद ही कोई लड़की मानती थी पर आजकल तो फ़ोन और मेसेज से लड़कियां आसानी से मान जाती है. जबकि फ़ोन और मेसेज के ज़रिये हम अपनी भावनाओं को अच्छी तरह प्रकट नहीं कर सकते. एक बात तो साफ़ है कि जैसे-जैसे चिठ्ठी विलुप्त होती जा रही है, वैसे-वैसे हम भी भावन विहीन होते जा रहे हैं.


                                                                                                                                      गजेन्द्र कुमार