माफ़ करना आधुनिकता के इस ज़माने में मैं चिट्ठी को याद करने की गुस्ताखी कर रहा हूँ. एक तरफ जहाँ लोग चिट्ठी को भूल रहे हैं वही मुझे पता नहीं क्यूँ अब चिट्ठी लिखने का जी कर रहा है. मुझे याद है मैंने बचपन में कई चिट्ठियां अपने घर पर भेजी थी जब मैं घर से दूर हॉस्टल में रहा करता था और तब मेरे घर पर टेलीफोन नहीं हुआ करता था. मेरी चिट्ठी पढ़कर माँ की आँखें डबडबा जाती थी और पापा बड़े खुश होते थे की मेरा बेटा बहुत अच्छा लिखता है. चिट्ठी लिखने के लिए मैं सब दोस्तों को झूठ बोलकर अकेले होने का मौका ढूंढता था. हॉस्टल में अकेले होने का वक़्त कम ही मिल पाता था इसिलए मैं कभी-कभी दोस्तों से बहाना बनाता और शाम को जब वो खेलने जाते थे तब मैं चिट्ठियां लिखा करता था. देर-सबेर टेलीफोन ने मेरे घर में भी दस्तक दे ही दिया उसके बाद तो चिट्ठी से रिश्ता ऐसा टूटा की आज याद आया. टेलीफोन आने के बाद घर में टेलीफोन की घंटी बजती तो घर में दूर बैठा मैं दौड़कर टेलीफोन उठा लेता था. हालाँकि कोई भी फ़ोन मेरे लिए नहीं होता था फिर भी फ़ोन की घंटी बजने पर मैं दौड़कर फ़ोन उठा लेता था. फ़ोन ज्यादातर पापा के लिए होता था या फिर पड़ोसिओं के लिए, पड़ोसिओं को बुलाने का काम भी मैं ही करता था. टेलीफोन के प्रति बढ़ते लगाव से चिट्ठी को बहुत दुःख हुआ होगा. धीरे-धीरे चिट्ठी का वर्चस्व कम होता गया पर चिट्ठी के इस बुरे दौर में भी प्रेम-पत्र काफी फल-फूल रहा था. मुझे याद है स्कूल के कई दोस्त कैसे अपने प्रेम-पत्र लिखवाने के लिए मुझसे गुज़ारिश करते थे. उस प्रेम पत्र में शेरो-शायरी की भरमार होती थी जो की मेरे पास पड़ी इक शेरो-शायरी की डायरी से मेरे दोस्तों द्वारा चुनी जाती थी. प्रेम पत्र में किसी डाकिये की ज़रूरत नहीं होती थी. डाकिये का काम कोई दोस्त या लड़की की कोई नजदीकी करता/करती थी. प्रेम पत्र में प्रेमी अपनी पूरी भावना लिखता था बड़ी मेहनत से कोई प्रेम पत्र तैयार होता था. इतनी मेहनत के वाबजूद भी शायद ही कोई लड़की मानती थी पर आजकल तो फ़ोन और मेसेज से लड़कियां आसानी से मान जाती है. जबकि फ़ोन और मेसेज के ज़रिये हम अपनी भावनाओं को अच्छी तरह प्रकट नहीं कर सकते. एक बात तो साफ़ है कि जैसे-जैसे चिठ्ठी विलुप्त होती जा रही है, वैसे-वैसे हम भी भावन विहीन होते जा रहे हैं.
गजेन्द्र कुमार
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