Tuesday, 30 December 2014

PK पर हंगामा क्यों ? ....

मुझे ताज़्जुब होता कि फिल्म  PK को लेकर लोग विरोध कर रहे हैं। मेरे Mphil में रिसर्च का विषय इसी विषय से सम्बंधित था। रिसर्च के आधार पर मैं ये दावे के साथ कह सकता हूँ कि फिल्म से सिर्फ कुछ संकीर्ण सोच वाले लोगों को या फिर कुछ छोटे-मोटे संगठनों को दिक्कत है। भारत के ज्यादातर लोगों को इससे कोई दिक्कत नहीं है वो फिल्म को एन्जॉय कर रहे हैं। उनके हिसाब से फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है जिस पर हंगामा खड़ा किया जाये। लोकतंत्र में क्या ये जायज है कि सिर्फ कुछ लोगों की सोच पुरे देश पर थोपा जाये। कुछ लोग इन मुद्दों पर अपनी राजनितिक रोटियां भी सेंकते है। अफ़सोस की सरकार भी इन छुटपुट लोगों के दवाब में आ जाती है और इनकी बातों को मान लिया जाता है, क्योंकि ये हंगामा मचाते हैं, तोड़-फोड़ करते हैं। बाकी ज्यादातर लोग चुप रहते हैं इस कारण सरकार उनकी  नहीं सुनती। विडम्बना ये है अब योग गुरु बाबा रामदेव भी इसमें कूद पड़े है वो अभिनेता आमिर खान की गिरफ़्तारी तक की मांग कर चुके हैं लेकिन अब काले धन पर चुप हैं। काला धन अब उनके लिए बड़ा मुद्दा नहीं रहा।
इस फिल्म में हिन्दू धर्म के विरोध में कुछ नहीं दिखाया गया है, हाँ हिन्दू धर्म में व्यापत बुराइयों पर ज़रूर प्रकाश डाला गया है, इससे तो किसी को कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। ऐसा करके वो इन बुराइयों को दूर करना चाहते हैं ताकि हिन्दू धर्म पहले से ज्यादा अच्छा हो। अगर हंगामा मचाना हीं है तो ये छुटपुट लोग बेरोज़गारी, महगाई, शोषण जैसे मुद्दे पर क्यों नहीं मचाते ? क्या धर्म बचाने से लोग सुखी हो जायेंगें या गरीबी दूर हो जाएगी ? ठण्ड से कितने गरीब लोगों की मौत हो रही वो इन छुटपुट लोगों को नहीं दीखता ? हमारे समाज को सच सुनने और देखने की आदत डाल लेनी चाहिए।

गजेन्द्र कुमार

Friday, 20 June 2014

बस यूँ हीं .....

हिंदी का भी कुछ हो सकता है क्या ?

सरकार द्वारा हिंदी को प्राथमिकता देने पर इतना हो-हल्ला तो नहीं मचना चाहिए था पर अफ़सोस ऐसा हो रहा है... अगर हिंदी की जगह इंग्लिश की बात की जाती तो शायद इतना हो हल्ला नहीं मचता...बड़ा अजीब है ना जब भी हिंदी की बात की जाती है लोग चिल्लाने लगते है, कहते हैं उनपर हिंदी ना थोपी जाये...पर हिंदी भाषी लोगों पर आज जो ज़बरदस्ती इंग्लिश थोपी जा रही है वो किसी को नहीं दिखता..ना हीं कोई हो-हल्ला मचाता है... आज-कल तो लोग हिंदी को समाप्त करने पर तुले हुए हैं..हिंदी की कोई पूछ नहीं रही और ना हीं इसकी कोई इज़्ज़त है... तभी तो हिंदी जानने वालों को कमतर आँका जाता है..वही इंग्लिश जानने वालों को सर पर बिठाया जाता है...यही कारण है कि आजकल हिंदी जानने वाले हीनभावना  से ग्रसित होते जा रहे हैं...शायद एक हिंदी जानने वाले के प्रधानमंत्री बनने से , हिंदी को फिर से जीवित करने कि कोशिश की जा रही है...शायद वो हिंदी भाषी लोगों का दर्द समझते हों इस कारण कुछ कर सके तो कोई आश्चर्य ना होगा...अगर सरकार वाकई राजनीति ना कर दिल से हिंदी के लिए कुछ करना चाहती है... तो हिंदी को रोज़गार देने वाली भाषा बनानी होगी तभी हिंदी का उद्धार हो सकता है....क्यों कि हिंदी जानने वालों को रोज़गार कम मिलता जब कि अंग्रेज़ी जानने वालों को रोज़गार आसानी से मिल जाती है और आजकल हर जगह इंग्लिश जानने वालों को पहले प्राथमिकता दी जाती है.....इसलिए सरकार को हिंदी को रोज़गार परक बनना होगा वरना ये बातें बस बातें हीं रह जाएगी...    

गजेन्द्र कुमार

Tuesday, 17 June 2014

बस यूँ हीं ...

उसकी गलती थी या बदकिस्मती ............

आवारा हवा की तरह था वो, बेपरवाह, बेफ़िक्र, मस्तमौला। कहां सुनता था किसी की वो, ना मम्मी­पापा की डांट का, ना भाई­बहन की नाराजगी का और ना हीं लोग की फटकार का असर पड़ता था। बस उसे जो अच्छा लगता था वही करता था। कुछ लोग उसे पागल भी कहते थे। और जहां तक मै उसे जानता था, ना वो पागल था, ना वो नादान था और ना हीं नासमझ था। वो तो बस वैसा ही था। लोगों  की परवाह किये बगैर अपनी मर्ज़ी का मालिक। मां­-बाप इसकी हरकतों से परेशान रहते थे। उसे शराब पीने की बुरी लत भी लग गई थी। गांव में रहता था वो, गावों में अक्सर शादी कम उम्र में हीं कर दी जाती है। मां­-बाप ने पढ़ाने की पूरी कोिशश की पर उसे पढ़ने में दिल कहां लगता था। मां­-बाप ने सोचा अब शादी कर दो शायद जिम्मेदारी का बोझ आ जाने पर कुछ सुधर जाए। शादी भी हो गई और बच्चे भी, पर उसमें कोई सुधार न हुआ। पर हां लगता है पत्नी की डांट ने थोड़ा ही सही पर उसे कुछ जिम्मेदार बना दिया था। उसे भी दो पैसे कमाने की चाह पैदा हुई और छोटा­-मोटा काम करना भी शुरु कर दिया  था। पर शराब पीने की लत उसकी गई नहीं थी। काम से छुट्टी लेकर वो घर आया हुआ था, शाम को बाइक से निकला और रात को शराब पीकर घर लौट रहा था। ऐसा वो पहली बार नहीं कर रहा था, ऐसा अक्सर वो किया करता था पर आज शायद उसकी किस्मत खराब थी। लौटते वक़्त रास्ते में एक ट्रैक्टर से टक्कर हो गई और इस दुर्घटना में उसका एक पैर बुरी तरह ज़ख़्मी हो गया। जिसे डाक्टर ने काटकर शरीर से अलग कर दिया। उसे अपना पैर गवांना पड़ा। वो अब अपाहिजों में गिना जाने लगा है। बहुत दुःख हुआ सुनकर उससे मिलना चाहता हूँ पर हिम्मत नहीं होती। हां उसके मा-बाप से फोन पर बात ज़रूर हुई। रो­ रोकर बुरा हाल है उनका। उसके पताजी की सिसकियाँ फोन पर ज़रूर सुनाई देर ही थी। वो भी अस्पताल में पड़े बेटे से मिलने की हिम्मत जुटा रहे थे। कह रहे थे उसे तो हिम्मत देने की ज़रुरत है और मेरा हिम्मत तो जवाब दे गया है, मै उसे हिम्मत कहाँ से दूंगा। उससे जो भी मिलने जाता उससे वह रोते हुए बस यही कहता है कि मेरी ज़िंदगी अब बर्बाद हो गई। मां­-बाप बस एक ही रट लगाये हुए हैं कि मेरे चांद में भी दाग लग गया। जैसे इन्हें अपने चांद जैसे बेटे पर बेदाग होने का बड़ा गुमान था। मेरा दिल भी पसीज गया उनसे बातें करके, आंखे भी नम हो गई थी, पर कोई क्या कर सकता था, सिवाय दिलासा देनेे के। कई लोग कहते है कि अगर शराब नहीं पी होती तो ऐसा नहीं होता पर कई लोग कहते हैं कि उसकी किस्मत खराब थी। ये कौन सा ऐसा पहली बार कर रहा था। बस आज किस्मत ने साथ छोड़ दी। दुर्घटना में मरने वाले सारे लोग शराबी तो नहीं होते है ना। ये उसकी  गलती थी या उसकी बदकिस्मती, इसका फैसला करना तो खैर मेरे वश की बात नहीं है। पर दुःख बहुत हुआ इसके बारे में ऐसा सुनकर एक पल के लिए तो मेरे होश ही उड़ गए थे। उसकी उम्र हीं अभी क्या है यही कोई २७-­28 साल का होगा वो, अब एक पैर के सहारे पूरी ज़िंदगी बितानी है।भगवान उसे हिम्मत दे।

                                                              गजेन्द्र कुमार 

Sunday, 13 April 2014

बस यूँ हीं ...

सुबह होती है, शाम होती है, उम्र यूं ही तमाम होती है....

                   मोबाइल का अलार्म सुबह-सुबह कोयल की आवाज़ में कूक उठता है। सुबह की नींद बड़ी प्यारी होती है। कोयल की कूक से नींद टूट तो जाती है पर आंखें नहीं खुलती और फिर अनमने ढंग से, आंखें बंद किए हुए, हाथ बरबस मोबाइल सेट की ओर बढ़ता है और फिर 5 मिनट और सो जाने की चाहत के साथ, कोयल को खामोश कर लेटा रहता हूं। कमरा छत पर होने की वजह से सुबह-सुबह की ठंडी हवा मेरे तन को स्पर्श करने लगती है। बड़ा अच्छा लगता है, आधी नींद में होने के कारण ठंडी हवा को अच्छी तरह महसूस भी करता हूं। जागने का जी नहीं करता पर थोड़ी देर बाद हीं सूरज की चंचल किरणों की रोशनी भी छत के मुंडेरों से टकराकर मेरी आंखों से शरारत करने लगते हैं और फिर मुझे जागना हीं पड़ता है। अंगड़ाईयां लेता हुआ बिस्तर से उठता हूं और जम्हाई लेते हुए डगमगाते कदमों से कमरे से बाहर आकर, ठंडी हवा के बीच तेज़ सांसें लेकर खुद को तरोताज़ा करता हूं। उसके बाद नहा-धोकर ऑफिस जाने की तैयारी करने लगता हूं। इस वक्त मुझे अपनी यूनिवर्सिटी के दोस्त मुझे बहुत याद आते हैं, क्योंकि यूनिवर्सिटी के अपने दोस्तों के ग्रुप में सुबह-सुबह सबसे पहले मैं हीं जागता था फिर दोस्तों के कमरे में जाकर उनकी नींद खराब करता था। उन्हें परेशान करके और गालियां देकर जगाता था और कभी-कभी तो मैं काफी गांलियां भी सुनता था। इस तरह उनकी तो आदत हीं बन गई थी की बिना मेरी गाली सुने उनकी नींद हीं नहीं खुलती थी। उसके बाद हमलोग इकठ्ठे ब्रेकफास्ट करने जाते थे। यहां ब्रैकफास्ट करते समय खानाऱूम (मैस) की शरारतें भी याद आती है, जब हम एक-दूसरे के प्लेट से पराठे और दहीं छीन कर खा जाते थे। खैर यादें तो याद करने के लिए हीं होती है।

                नास्ता करने के बाद ऑफिस जाने के लिए मैट्रो का रूख करता हूं। शुरूआत में मुझे मैट्रो से सफर करने में पता नहीं क्यों, थोड़ी घबराहट होती थी लेकिन अब ठीक है। मैट्रो की सफर के भीड़ का हिस्सा मैं भी बन चुका हूं। ऑफिस टाइम में तो इतनी भीड़ होती है कि मैट्रो में पैर रखने तक की जगह नहीं होती। फिर भी लोग बिना किसी परेशानी के सफर करते दिखते हैं। लोगों को आदत हो गई है या फिर यूं कहें की और कोई रास्ता भी तो नहीं है। खैर जो भी हो मैट्रो में मुझे तरह-तरह के लोग या फिल्मी स्टाइल में कहें तो किरदार देखने को मिल जाते हैं। उन किरदारों को मैं चुपचाप देखता हूं और एंज्वाय करने की कोशिश करता हूं तो कभी-कभी कुछ सीखने की भी कोशिश करता हूं। चुनावी महौल है इस कारण मैट्रो में भी केजरीवाल और मोदी के बारे में अक्सर लोगों के रोचक चर्चे सुनने को मिल जाते हैं।
  
            मैट्रो में कई बार नोक-झोंक भी देखने को मिल जाता है। मैने देखा है कि कैसे महिलाएं अपनी सीट के लिए पुरूषों से लड़ जाती है। अच्छा है महिलाएं अब जागरूक हो गई हैं, अपने हक के लिए लड़ना सीख गई हैं। पर मुझे बुरा तब लगा जब मैट्रो में एक वृद्ध वाली जगह पर एक लड़की बैठी थी और एक लगभग 70 साल का बूढ़ा कमज़ोर व्यक्ति उसके सामने खड़ा था लेकिन उसने सीट देने की ज़रा भी तकलीफ़ नहीं की। जबकि उस व्यक्ति की आंखे बार-बार उसकी ओर देख रही थी कि शायद लड़की अब कहेगी की आप बैठ जाओ अंकल, लेकिन ऐसा न हुआ। इस बात से ये साफ हो जाता है कि हम और आप हर कोई अपने हक और अधिकार के लिए तो लड़ना जानते हैं लेकिन हम अपना फ़र्ज और कर्त्तव्य नहीं निभाना चाहते।

                एक मजे की बात करता हूं। और वो ये है कि मैनें गौर किया है कि यहां दिल्ली में लोगों को एक दूसरे से प्यार हो या ना हो लेकिन दो जोड़ों (कपल) के बीच का प्यार साफ दिख जाता है। बाकी मुझे नहीं पता की ये वाकई रुह वाला प्यार है या नहीं, लेकिन उनकी हरकतों से बाहर वाला प्यार तो मैट्रो में दिख ही जाता है। इस मामले में भी दिल्ली ने काफी तरक्की कर ली है। अच्छा है लोगों को पूरी स्वतंत्रता का एहसास होता है, कोई कुछ भी करें, कहीं भी करें। कोई रोकता नहीं। इन चंचल शोख हसीनाओं को देखकर मेरे मासूम चेहरे के अंदर छुपा चंचल दिल भी मचल उठता है और बरबस नजरें बार-बार गुस्ताखी करने लगते हैं। तांक-झाक का सिलसिला कमबख्त मैं चाहकर भी नहीं रोक पाता। क्या करूं कभी-कभी काफी मज़बूर हो जाता हूं, इन मामलों में अपने आप को कंट्रोल नहीं कर पाता। मुझे थोड़ा बुरा तब लगा जब यहां मैने काफी कम उम्र वाले बच्चे जो अभी स्कूल में ही पढ़ते हैं। मैट्रो के अंदर ऐसी हरकत करते हैं, जिसे देखकर मेरी आंखें झुक गई। लेकिन उनकी हरकतें नहीं रुकी, पास में ही एक बूढ़े अंकल भी थे। चेहरे से ऐसा लग रहा था की वो आग बबूले हो रहे हैं पर उन्होनें कुछ नहीं कहा। मुझे नहीं पता ऐसी आजादी सही भी है या गलत। इसे आज़ादी कहें या कुछ और।

                        ये तो बात हो गई मैट्रो की। मैट्रो से सफर करने के बाद ऑफिस जाता हूं और फिर वापिस भी मैट्रो से हीं आता हूं। शाम को कमरे में थोड़ी देर आराम कर लेता हूं, थोड़ी देर लैपटाप के साथ टाइमपास कर लेता हूं। फिर रात के खाने के बाद। छत पर टहलते हुए मोबाइल से बातें करना शुरू करता हूं। आजकल मोबइल पर बातें थोड़ी ज्यादा होने लगी है। बातें करते हुए मैने एक बात गौर की है की रात को मोटी औरतें गली में या फिर छत पर ज्यादा टहलती दिखाई देती हैं, लेकिन एक भी मर्द नहीं दिखते। इसका ये मतलब बिल्कूल नहीं है कि मर्द मोटे है ही नहीं। इससे ये पता चलता है कि औरतें स्वास्थ्य को लेकर ज्यादा जागरुक हैं। इन मोटे लोगों को देखकर सबसे पहले मन में ये बात आती है की इनसे थोड़ा-बहुत मोटापा मुझमें आ जाता तो कितना अच्छा होता, पर ऐसा हो नहीं सकता। इसके बाद सो जाता हूं और फिर सुबह कोयल की कूक से नींद खुलती है। इस तरह सुबह होती, शाम होती और दिन गुजर जाता है।

                                                                                                               गजेन्द्र कुमार


Wednesday, 26 March 2014

बस यूँ हीं ...

बिहार-पंजाब-दिल्ली-पंजाब-दिल्ली....
बंजारा बन चुकी है मेरी ये ज़िदगी
पता नहीं कहां-कहां जाना बाकी है अभी
दिल बार-बार टूट जाता है,
मत करना किसी शहर से कभी दिल्लगी।
                              गजेन्द्र कुमार 

बस यूँ हीं ...

               क्या खुद से दूर कर देगा वो मुझे ? बस इतनी देर का साथ था ? क्या वो सच में मेरा साथ छोड़ देगा ? क्या मेरे छोड़ने का दुख उसे नहीं होगा ?...कई सवाल हैं मेरे जेहन में हैं...और मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि वो मुझे चाहता है, पसंद करता है, प्यार करता है।  कहां जानता था मै उसको..बिल्कुल अंजान था मैं, पहली दफ़ा जब उससे मुलाकात हुई तो मै काफी सहमा और डरा हुआ था। मुझे लगता था हमारी बीच कभी दोस्ती नहीं हो पायेगी। दोनों बिल्कूल अलग थे, मेरी बोली अलग, भाषा अलग, रहन-सहन अलग, खान-पान अलग। शुरूआत में मै रोया भी करता था तब कोई आंसू पोछने वाला भी नहीं था। पर शायद वो कहीं लुक-छुप कर मुझे निहारा करता था। मेरा रोना इसे अच्छा नहीं लगा था शायद, या फिर मुझमें कुछ अच्छा लगा होगा उसे। तभी तो उसने मुझे धीरे-धीरे समझने की कोशिश की और जल्दी हीं हमारे बीच दोस्ती हो गई। हमारे बीच प्यार पनप बैठा। मै नहीं जानता था कि हमारी दोस्ती का साथ इतने लंबे समय तक रहेगा। मै एहसानमंद हूं इसका, इसने मुझे बहुत कुछ दिया है और सिखाया है। हर कदम पर साथ दिया है, जहां मै हार मान लेता था वहां हौसला दिया है। मै बहुत ही जज्बाती, मासूम और नादान था। इसने मुझे इन्हीं तीनों कमज़ोरियों को मेरा हथियार बनाना सिखाया। मुझे इसने कठिन से कठिन परिस्थितियों से लड़ना सिखाया, मुश्किल घड़ी में भी मुस्कुराना सिखाया। सही मायने में ज़िदगी क्या होती है और ज़िदगी कैसी जी जाती है, इसी ने सिखाया। मैं तो इस दोस्ती से आज़ाद होना चाहता था, इसे छोड़ना चाहता था, मैं वापिस जाना चाहता था। लेकिन इसने बार-बार मुझे अपनी ओर खींच लिया और मैं भी ना न कर सका। हमारे बीच एक ऐसा रिश्ता कायम हो गया जिसमें सिर्फ प्यार हीं प्यार था। विश्वास इतना की हमारे बीच शक कभी आने की हिम्मत भी नहीं करता। हमारे बीच प्यार जो इतना बढ़ गया था। इस प्यार में मै एक ग़लतफ़हमी भी पाल बैठा था कि हमदोनों का साथ कभी नहीं छुटेगा। एक बार पहले भी ज़माने ने हमें तोड़ने की कोशिश की थी लेकिन इससे मेरी दूरी सही नहीं गयी और मुझे फिर से अपने पास बुला लिया। एकबार फिर हमें दूर करने की साज़िश हो रही है, क्या इस बार ये कामयाब हो जाऐंगे ? हमारे वर्षों का साथ अब टूट जाएगा ? मैनें बड़ी कोशिश की है साथ निभाने की पर नाकामयाब रहा। पर हार मानने वालों में से नहीं हूं मै, कोशिश करता रहूंगा। बस तू मेरा साथ मत छोड़ना.....

                                                       तुम्हारा गजेन्द्र कुमार

Saturday, 22 March 2014

बस यूँ हीं ...

वो रोती रही और मै मुस्कुराता रहा...बड़ा कठिन होता है वो पल....जब किसी अपने को ऐसा इल्म हो कि अब उसकी ज़िदगी की डोर शायद छुटने वाली है...और वो आपके गले से लिपटकर फफक-फफक कर रो रहा हो...उसकी आंखों की नमी से आपकी कमीज़ गीली हो रही हो...उसके रूंधे हुए गले से निकलती सिसकती आवाज़ और बार-बार आपके गालों को चूमना...उसके हाथों का ऐसा जकड़न कि जैसे वो तुम्हें छोड़ना ही ना चाहे....आंखों में छलकता आपके लिए प्यार और उसकी ज़िदगी मिट जाने का भय....इन सब के बावजूद उसके सर पर हाथ सहलाते हुए, गीली हो चुकी आंखों के अश्कों को उंगलुओं से पोंछते हुए और अपने मुस्कुराते हुए चेहरे के साथ हौसला देना और कहना कि अरे कुछ नहीं हुआ है...सब ठीक हो जाएगा...बेकार का डर रही हो...हंसते रहो कुछ नहीं होगा...ज़िदगी का नाम रोना नही है..ज़िदगी का नाम हंसना है...रोने से कुछ अच्छा नहीं होगा बल्कि हंसने से सब अच्छा होगा... इन परिस्थितियों में मुस्कुराते हुए किसी को हौसला देना कितना मुश्किल है ये मैंने पहली बार एहसास किया...वो रोती रही और मै मुस्कुराता हुआ ये बातें कहता रहा...दिल में घुमड़ते बादल को रोकने का इतना हौसला कहां से आया, ये मुझे नहीं पता..शायद मेरी इस छोटी सी ज़िदगी में आए उतार-चढ़ाव ने मुझे अब इतना कठोर तो बना ही दिया है कि विकट परिस्थितियों में भी मुस्कुराने की अच्छी एक्टिंग कर सकुं। ये हुनर बड़े काम का है...

      मेरा ये छोटा सा फ़िल्मी लेक्चर पता नहीं उसे अच्छा लगा हो या ना... फ़िल्मी लेक्चर हीँ सही पर हकीकत भी तो यही है ना, ज़िदगी तो जीना ही है ना..चाहे कुछ भी हो...ज़िदगी से हार मानना कायरता है...हालांकि ज़िदगी की ऐसी परिस्थितियों में मुस्कुराना कितना मुश्किल है ये मै जानता हूं, लेकिन और कोई रास्ता भी तो नहीं...ज़िदगी का नाम तो हंसना है ये मै मानता हूं और हंसने की कोशिश करते रहना चाहिए...

          दुख, बेबसी, मज़बूरी....ज़िदगी के डगर पर जब तीनों से एक साथ सामना हो तो इंसान टूट सा जाता है और फिर उसके जुबां से बस एक हीं शब्द निकलता है...अब तो बस भगवान हीं कुछ कर सकता है...मै नहीं जानता भगवान नाम की कोई चीज़ है भी या नही... पर ऐसा कहने से दिल को थोड़ी तसल्ली और मन को संतोष ज़रूरी मिलता है। इन परिस्थितियों में अगर कोई काम की चीज़ है तो वो है हौसला, और मैने अपने मुस्कुराते हुए चेहरे से यही देने की कोशिश की...


आजमाती है हर पग पर मुझको
ज़िन्दगी इतनी आसान नही है.......

Thursday, 16 January 2014

मीडिया में मिसाल कायम की है "The Tribune" ने


मीडिया के क्षेत्र में आकर मायूस और हतास युवा के लिए ये कोई बड़ी खुशखबरी तो नहीं लेकिन खुशखबरी ज़रूर है...क्यूँकि The Tribune अख़बार ने एक बेमिसाल कदम उठाते हुआ फैसला किया है कि ट्रिब्यून अख़बार से जुड़ने वाले फ्रेशर युवा को भी 21000 प्रति माह सैलरी दी जायेगी...जो कि मीडिया के क्षेत्र में एक मिसाल कायम किया है...आजकल युवा पत्रकार को तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी इतनी ज्यादा सैलरी के साथ शुरुआत नहीं मिलती...ये ट्रिब्यून का निश्चित ही सराहनीय कदम है...हालाँकि ट्रिब्यून सिर्फ 4 राज्य़ों पंजाब, हरियाणा, हिमाचल और दिल्ली से प्रकाशित होती है...लेकिन ट्रिब्यून से जुड़े पत्रकारों के लिए ये हर्ष का विषय है....कम से कम अब तो टाइम्स ऑफ़ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर जैसे सभी बड़े अख़बारों को ट्रिब्यून से कुछ सीख लेनी चाहिए...अगर सीख नहीं लेना चाहती तो कम से कम रहम तो ज़रूर करना चाहिए .....नहीं तो बाकी दूसरे अख़बार से जुड़े लोगों के मन में क्या भावन पैदा होगी..ये सोचने का विषय है.. मीडिया में काम कर रहे लोगों कि क्या स्थिति है ये बाहरी लोग कम ही जानते हैं लेकिन मीडिया से जुड़े लोगों को तो अच्छी तरह मालूम है...अगर एक अखबार पत्रकारों के बारे में कुछ अच्छा सोच सकता है तो फिर सारे अखबार वाले ऐसा क्यूँ नहीं सोचते ??? ..अगर नहीं सोचते तो पत्रकारों को आवाज़ उठानी चाहिए ...अपने हक़ के लिए लड़ना चाहिए...सरकार दवारा बनाई गई "Working Journalist Act 1955"  लागू करने की मांग करनी चाहिए,  जिसमें पत्र्कारों के हित की बात की गयी है...कब तक चुप बैठोगे ???  दूसरों की आवाज़ बनने वाले, हिम्मत करो और अपनी आवाज़ बुलंद करो ....और ये सिर्फ प्रिंट मीडिया के लिए हीं नहीं बल्कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए भी है ...जब एक प्रिंट मीडिया में एक युवा पत्रकारों को सम्मानजनक सैलरी मिल सकती है तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में क्यूँ नहीं मिल सकती...इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो काम और भी ज्यादा लिया जाता है....आवाज़ उठाओ ...plzzzzzzzzzzz

                                                                                                             गजेन्द्र कुमार 

Wednesday, 15 January 2014

कौन बनेगा मीडिया के लिए " केजरीवाल "....

कौन बनेगा मीडिया के लिए " केजरीवाल "

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पिछले कुछ महीनों में कुछ ऐसा कर दिखाया है, जिससे भारत के मायूस और नाउम्मीद लोगों में उम्मीद और ख़ुशी की लहर दौड़ा गई है.. खैर ये तो वक़्त हीं बतायेगा कि केजरीवाल लोगों की उम्मीदों पर कितना खरा उतरतें हैं,  पर दुःख की बात तो ये है कि देश का चौथा स्तम्भ कहा जाने वाला मीडिया भी आज मायूसी और हतासा के दौर से गुज़र रहा है... मीडिया से जुड़े लोग काफी हतास और हीनभावना से ग्रस्त होते जा रहे हैं ...खासकर वो लोग जो पिछले कुछ सालों में मीडिया से जुड़े हैं...आज के युवा पत्रकार जो भी मीडिया से जुड़ रहा है वो खुश नहीं.... क्यूंकि उनसे काम नहीं लिया जाता बल्कि उनका शोषण किया जाता है... उनसे ये कहा जाता है कि आपके ऑफिस आने का तो टाइम होगा पर जाने का कोई टाइम नहीं होगा यानि आप कितने घंटे काम करोगे ये निश्चित नहीं और ये एक दिन के लिए नहीं बल्कि हर दिन के लिए होता है...इतने घंटे काम करने के बावज़ूद इन्हें कोई मोटिवेशन नहीं मिलता...बेरोज़गारी से मज़बूर युवा अपने बॉस की हर सही-गलत बात खमोशी के साथ सह लेता है...इसके बाद उन्हें सैलेरी क्या मिलती है ???  किसी को 10 हज़ार तो किसी को 12 हज़ार तो किसी को 15 हज़ार ...बेचारे को दिल्ली जैसे शहर में काम करने के बाद भी दिल्ली में रहने के लिए घर से पैसे मांगने पड़ते हैं या फिर जो घर से नहीं मांगते हैं वो कैसे अपना गुज़ारा करते हैं ये देखकर आपके दिल पसीज जायेंगे...वो बेचारे अपने घर वालों को क्या पैसे देंगे ...इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी की कोई नौकरी करे इसके बावज़ूद घर से पैसे मांगने पड़े...इतनी पढाई के बाद भी इनकी इतनी बुरी हालत है...इससे ज्यादा तो एक अनपढ़ मज़दूर हर महीने मज़दूरी करके कमा लेता है...इन वजहों से आज का युवा पत्रकार हीनभावना से ग्रस्त हो रहा है...ये बातें तो युवा पत्रकारों की है जो आज की दौर में मीडिया में जा रहे हैं ....मीडिया के वो लोग भी खुश नहीं हैं जो कई वर्षों से मीडिया के क्षेत्र में काम कर हैं ...कई वर्षों से काम कर रहे ज्यादारतर पत्रकारों इस ताक में रहते हैं की उन्हें टीचिंग के क्षेत्र में जॉब मिल जाये...उनके सामने टीचिंग का विकल्प आते हीं मीडिया का क्षेत्र छोड़ने में जरा भी देर नहीं करते और पढाने का काम शुरू कर देते हैं...यानि कई वर्षों से मीडिया में काम से कर रहे पत्रकार भी मीडिया में काम करने के तौर-तरीके से परेशान हैं...पर सोचने वाली बात ये है कि जो पत्रकार मीडिया का फील्ड छोड़ कर टीचिंग में आ रहे हैं ...क्या वो अपने स्टूडेंट का वही हाल होता देखकर खुश हो पाएंगे जो उन्होंने झेल है ??? अगर उनलोगों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता तो ये अलग बात बात है...सबसे ज्यादा दुःख वाली बात ये है कि लोगों को जागरूक करने वाला मीडिया ,लोगों की आवाज़ बनने वाला मीडिया...लोगों की शोषण के खिलाफ खड़ा होने वाला मीडिया...खुद जागरूक नहीं है,,खुद पर हो रहे शोषण के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा रहा...परेशान हर पत्रकार है ..पर अगर किसी से आवाज़ उठाने के लिए कहो तो उनका जवाब होगा ..यार यहाँ तो यही चलता है..लाख कोशिश कर लो कुछ नहीं बदलने वाला...और फिर चुप-चाप हर ज्यादतियों को सह जाते हैं....तभी को कह रहा हूँ कोई मीडिया के लिए भी "केजरीवाल"  बने , जो इनकी दबी आवाज़ को बुलंद कर सके ...मीडिया की कलम खरीद ली गयी है और मीडियाकर्मियों की आवाज़ गुलाम हो चुकी है ...मेरा तो कहना है की ज़िल्लत की नौकरी से कही अच्छी है बेरोज़गारी ...कम से कम किसी का गुलाम तो नहीं....मज़े की बात तो ये है की सरकार ने बहुत पहले हीं पत्रकारों के लिए working journalist act 1955 बनाया था लेकिन दुर्भागय है की कोई मीडिया आर्गेनाईजेशन इसे नहीं मानता ..यही वजह है की आज पत्रकारों की इतनी बदतर हालत है ...working journalist act 1955 के तहत एक पत्रकार के काम करने के घंटे से लेकर उनकी तन्खाह तक की बात कही गयी है ...अगर आज भी इस एक्ट को फॉलो किया जाये तो पत्रकारों की हालत बदल सकती और फिर मीडिया की हालत भी बदल जायेगी...ज़रूरत है बस इक ऐसे शख्स की जो मीडिया वालों की आवाज़ बुलंद कर सके .. मेरा दावा है कि अगर कोई एक व्यक्ति भी आवाज़ उठाएगा तो उसके साथ हज़ारों हाथ खड़े हो जायेंगे...क्योंकि आज मीडिया के काम करने के रवैये और तौर-तरीके से हर कोई परेशान है...अगर किसी को फायदा हो रह है तो बस मीडिया आर्गेनाईजेशन के मालिकों को ....

वैसे देश के आगामी प्रधानमंत्री के बनने का सपना देख रहे पप्पू और फेकू जी से भी कहना चाहूंगा कि मीडिया कर्मियों का दर्द समझते हुए, अपने घोषणा पत्र में मीडिया के हक़ के बारे में चर्चा करें...जो भी मीडिया के हक़ के बारे में बात करेगा , उसकी जीत पक्की समझो , क्यूँकि फिर तो वो मीडिया वालों के चहेते हो जायेंगे ...और आप दोनों मीडिया के पावर को अच्छी तरह समझते हैं ...मेरी तरफ से ये मशविरा मुफ्त में ...तो देर किस बात कि जल्दी आप मीडिया के लिए केजरीवाल बनो ...जय हो ..:-P
                                                                           
                                                                                             गजेन्द्र कुमार 

Monday, 6 January 2014

बस यूँ हीं ...

प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया के चैयरमेन जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने करीब दो साल पहले ये बात कही थी कि ज्यादातर जर्नलिस्ट का  इन्टलेक्चूअल लेवल कम है...ज्यादातर जर्नलिस्ट एम.ए, या फिर बी.ए तक कि पढ़ाई कर इस फील्ड में आ जाते है .... इस बात से तब मैं समय सहमत नहीं था, लेकिन अब उनकी  बातों से मैं इतेफाक रखता हूँ ....हालांकि मीडिया में मेरा अनुभव काफी कम है ...पर मैं ये अब कह सकता हूँ कि काटजू साहब आप सही थे...एक मीडिया आर्गेनाइजेशन में मेरे 4 महीने के काम के दरमियान 8 बार पूछा गया कि आप चैनल में काम क्यूँ करना चाहते हो ...जबकि आप UGC NET क्वालिफाइड हो, आपके पास Mphil कि डिग्री है ....हमेशा मुझे शक कि निगाह से देखा गया...मुझे तो ऐसा लगने लगा कि मैंने थोड़ी सी  ज्यादा क्वालिफिकेशन लेकर गुनाह कर दिया हो....मेरे कहने का मतलब ये बिलकुल नहीं है कि उच्च शिक्षा बुद्धिमता की गारंटी है ...कई ऐसे लोग हैं मीडिया में, जो कम शिक्षा के बावज़ूद बहुत अच्छे काम कर रहे हैं , लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं होना चाहिए कि जिनके पास उच्च शिक्षा है वो मीडिया में न आये...कहीं ऐसा तो नहीं कि इनके आने से मीडिया के गुणवता पर बुरा प्रभाव पड़ेगा ??? ...मुझे तो ऐसा नहीं लगता ....उच्च शिक्षा ग्रहण कर मीडिया से जुड़ने वाले लोग बहुत कम हैं ....आखिर क्या कारण है जिसके वजह से उच्च शिक्षा वाले लोग मीडिया आर्गेनाईजेशन से जुड़ना नहीं चाहते या फिर जुड़ने के बाद उससे अपने आप को छुडाना चाहते है ???...अगर मीडिया को विश्वसनीय और जिम्मेदार बनाना है तो इन सवालों के जवाब हमें ढूंढने होंगे ...

गजेन्द्र कुमार