हरबार की भांति इसबार भी स्वतंत्रता दिवस आने वाला है.. कल फेसबुक, ट्विटर के साथ-साथ और भी कई सोशल नेटवर्किंग साईटस पर शुभकामनाओं की बाढ़ सी आ जाएगी..लगता है जैसे लोग स्वतंत्रता दिवस के आने पर बहुत ख़ुश होते हैं, पर क्या वाकई ऐसा है ??? मुझे तो ऐसा बिल्कुल नहीं लगता..भारत को युवाओं का देश कहा जाता है, यहाँ सबसे ज्यादा युवा हैं...देश की रीढ़ होतें हैं युवा, देश की उर्जा होतें हैं युवा, देश का भविष्य होता है युवा....पर क्या वाकई आज के युवा खुश हैं ??? ये सवाल आज क्यूँ खड़ा हो रहा है, किसी ने जानने की कोशिश की है ??? शायद नहीं ...देश का युवा आज भारी निराशा के दौर से गुज़र रहा है...युवाओं के सामने रोज़गार एक बहुत बड़ी चुनौती है...रोज़गार न मिलने की वजह से आज का युवा वर्ग घोर निराशा के दौर से गुज़र रहा है...आज के युवा काफी पढ़े-लिखे होतें हैं इसके बावजूद इन्हें रोज़गार नहीं मिलता.. इनकी डिग्री की कोई अहमियत नहीं रह गयी है...किसी को अगर रोज़गार मिल भी जाता है तो उन्हें इतना कम पैसा मिलता है कि वो अपनी सैलरी किसी को भी बताने से हिचकिचाता है.. ये युवा फिर अपनी तुलना उन अनपढ़ मजदूर से करने लगतें हैं जो हर महीने इनसे कही ज्यादा कमा लेते हैं...उन्हें फिर अपनी पढाई पर खर्च किये गये धन, समय और मेहनत पर काफी अफ़सोस होता है..इन परिस्थितियों के लिए वो खुद को जिम्मेवार समझ लेते और अन्दर ही अन्दर घुटते रहतें हैं, पर क्या सच में इन परिस्थितियों के लिए युवा खुद जिम्मेवार है ??? युवा हीनभावन से ग्रस्त हो जाते हैं, वो अपने माता-पिता से आँख नहीं मिला पाते, अपने सगे-सम्बन्धियों से मिलने से भी कतराते हैं...क्यूँकि, उन्हें डर होता है की कहीं कोई सैलरी न पूछ ले....बेचारे युवा घुट-घुट कर जीने पर मजबूर हैं...इतनी सैलरी में वो न ठीक ढंग से रह सकते हैं, न अच्छा खाना खा सकते हैं न हीं अपना कोई और शोक पूरा कर सकता है...अगर उसकी शादी हो गयी है तो फिर वो अपना घर कैसे चलता है उसी को पता होता है...जो उच्च पद पर बैठे हैं उनका वेतन लाखों में होता है पर इन युवाओं का वेतन बस कुछ हज़ार होता है.. ये मानता हूँ कि वरिष्ठ लोगों कि सैलरी ज्यादा होनी चाहिए मगर ये ज़मीं असमान का फर्क कही से सही नहीं है...एक युवा बेचारा कुछ भी खरीदने से पहले दस बार सोचता है, वही वो लोग बेकार चीजों को खरीदकर अपने शान ओ शोकत का दिखावा करते हैं...युवा के पास एक स्कूटर भी नहीं होता और उनके पास महंगी-महंगी गाड़ियाँ होती है..बेचारे युवा काम भी आठ से दस घंटे करते हैं फिर भी उनकी दैनिक ज़रूरतों को पूरा करने में सोचना पड़ता है ....ऐसी स्वतंत्रता से क्या फायदा जिसमें इंसान घुट-घुट कर जीता हो...निराशा ने युवाओं को उर्जा विहीन कर दिया है बेचारे अपनी आवाज़ भी बुलंद नहीं करते, जबकि उन्हें पता होता है कि उनका शोषण हो रहा है...उन्हें डर होता है कि आवाज़ उठाने से कहीं उनकी जॉब हीं न चली जाये...सरकार राग अलापा करती है कि हम रोज़गार का सृजन कर रहे हैं...ऐसी रोज़गार कि सृजनता से क्या फायदा जहाँ उनकी पढाई-लिखाई कि क़द्र ही नहीं होती हो, जो उनकी आम ज़रूरतों को भी पूरा नहीं करती...स्वतंत्रता का मतलब ये तो नहीं होता.....
ऐसा सिस्टम क्या सही है की इक इंसान रोज़ शाही पनीर खाता हो तो दूसरा एक सुखी रोटी खाने के लिए तरसता हो ...देश का भविष्य अगर युवा है और आज के युवाओं का हाल ऐसा है तो आगे क्या होगा ये सोचकर डर लगता है ........
गजेन्द्र कुमार
ऐसा सिस्टम क्या सही है की इक इंसान रोज़ शाही पनीर खाता हो तो दूसरा एक सुखी रोटी खाने के लिए तरसता हो ...देश का भविष्य अगर युवा है और आज के युवाओं का हाल ऐसा है तो आगे क्या होगा ये सोचकर डर लगता है ........
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