Sunday, 29 December 2013

बस यूँ हीं ...

कभी किसी को ठोकर में रखा कभी किसी को देवता बना दिया
इंसान और पत्थर की किस्मत देख खुदा पर यकीन आया ।

Wednesday, 11 December 2013

दीप‬.................


वो मिलने नहीं आता है तो क्या तू लड़ने उसके घर पहुँच जा।
ये इश्क है पगले...........जंगे-मैदान से कुछ कम नही

तुम आओ तो गुनगुनी धुप साथ लेते आना 
मौसम से भी सर्द हमारा रिश्ता हो चला है।

अब जिंदगी की सांस उखड़ने लगी
दुनिया की भागदौड़ में हांफने लगी।



Tuesday, 10 December 2013

‪दीप‬.......

भटकती आत्माओ के शहर में 
अपने व्जूद को दांव पर लगा कर 
किसी से टूट कर चाहना?

हर इक शख्स अपनी मौत का हरकारा
मैं उनमें जिंदगी तलाश कर रही थी?

अपने आपसे भागते लोग मिले मुझे हर जगह
मैं ये सोच कर दुखी होती रही
ये सब मुझसे भाग रहे हैं?

मुझे लगा मैं हु सबसे ज्यादा बिखरी
लेकिन दुनिया में संवरा हुआ कोई नहीं तब
अपने आप के खुद को ज्यादा करीब पाया

एक अनजान दुनिया में तुच्छ प्राणी
पता नहीं क्यों सैकड़ों वर्षों से है प्यासा
ये तृष्णा ! कब तक जलायेगी हमें?

इक मैं ही हूँ जो हलाहल पी ...
निकाल सकती सब को
जो हो मुझसे जुड़े..खुद से भागते?

पता नहीं क्यों लोग इतना खुश हो लेते है?
जबकि कुछ भी नहीं है खुश होने की वजह?
न है कोई बात दुःख मनाने की
न बात है मरते मरते जीने की।
बात है सिर्फ़ है "मरने के लिए जीने की"
या जीते जीते मर जाने की"


‪#‎दीप‬

बस यूँ हीं ...

हाथों में तो हमेशा खुजली होते रहती है कुछ लिखने के लिए पर वक़्त नहीं मिलता ...काफी दिनों बाद वक़्त मिला तो सोचता हूँ कुछ लिख ही दूँ....अरे हाँ एक बात तो मैंने अपने बारे में बताना भूल ही गया  ...आजकल मुझे आँखों में भी खुजली हो रही इसके चलते मेरी आँखों के नीचे थोड़ी सूज़न भी आ गयी है...आँखों के नीचे सूजन क्यूँ होती है ये बताने कि ज़रूरत नहीं है ...आप तो खुद हीं समझदार हैं ...:P .....चलिए छोड़िए ज्यादा मत सोचिए....अब मुद्दे पर आते हैं ....बात करते हैं  "आम आदमी पार्टी"  की ...दिल्ली में जिस तरह से  "आप"  ने धमाकेदार एंट्री मारी है उससे हर कोई दंग है....चुनाव के नतीज़े आने से पहले पता नहीं क्या-क्या कहा जा रहा था ...कोई कहता की ये पार्टी तो वोट कटवा पार्टी है...तो कोई कहता ये "आप" का पहला और आखिरी चुनाव है ...यहाँ तक की मीडिया ने भी "आप" का साथ छोड़  दिया था ...क्यूँ की आजकल के मीडिया का तो पता ही हैं आपको ना....लेकिन  "आप"  ने खामोश क्रांति की तरह अपने लिए एक दमदार लहर तैयार किया...और सबको पटखनी दे दी ....आप की जीत की वजह ये भी है की आम जनता ...कांग्रेस और बीजेपी दोनों नेशनल पार्टियों से तंग आ चुकी थी...जनता जानती है की दोनों चोर-चोर मौसेरे भाई हैं ....यही वजह है की जनता ने एक तीसरी पार्टी पर भरोसा जताया है ....इस जीत ने जता दिया है की आम आदमी की आम आदमी पार्टी से कितनी उम्मीद हैं ...क्या पार्टी इनकी उमीदों पर खरा उतर पायेगी ??? ये सबसे बड़ा सवाल है ....इनकी उमीदों को पूरा करना आसान नहीं है ....इससे भी बड़ी चुनौती है कि ....क्या आप अपनी इस बड़ी कामयाबी को पचा पायेगी ??? कहीं इनकी पार्टी के लोगों में भी अब आम से खास बनने कि चाहत ना पैदा हो जाये ...ये भी आज के नेताओं कि तरह कही नेतागिरी को पेशा तो नहीं बना लेंगें ???....थोड़े समय में अमीर बनने कि चाह तो नहीं पैदा हो जायेगी ???...कहीं इन्हें पावर का घमंड तो नहीं हो जायेगा ???... क्या  "आम आदमी पार्टी"  आम रह पायेगी ???  इस तरह के कई सवाल  खड़े होतें हैं ...आगे तो वक़्त ही बतायेगा पर उम्मीद करता हूँ कि मेरे इन सवालों का जवाब ना में हीं होगा .....
                                                   
                                                                      गजेन्द्र  कुमार  

Thursday, 28 November 2013

"Know the Truth"

गरीब दूर तक चलता है..... खाना खाने के लिए......।
अमीर मीलों चलता है..... खाना पचाने के लिए......।

किसी के पास खाने के लिए..... एक वक्त की रोटी नहीं है.....
किसी के पास खाने के लिए..... वक्त नहीं है.....।

कोई लाचार है.... इसलिए बीमार है....।
कोई बीमार है.... इसलिए लाचार है....।

कोई अपनों के लिए.... रोटी छोड़ देता है...।
कोई रोटी के लिए..... अपनों को छोड़ देते है....।

ये दुनिया भी कितनी निराळी है। कभी वक्त मिले तो सोचना....

कभी छोटी सी चोट लगने पर रोते थे.... आज दिल टूट जाने पर भी संभल जाते है।

पहले हम दोस्तों के साथ रहते थे... आज दोस्तों की यादों में रहते है...।

पहले लड़ना मनाना रोज का काम था.... आज एक बार लड़ते है, तो रिश्ते खो जाते है।

सच में जिन्दगी ने बहुत कुछ सीखा दिया,
जाने कब हमकों इतना बड़ा बना दिया।

रोऊँ या हसूँ.... करूँ मैं क्या करूँ ??? :-p



मैं रोऊँ या हसूँ , करूँ मैं क्या करूँ ये इसलिए कह रहा रहा हूँ ... क्यूँकि आज मेरे साथ जो हुआ उसपर गुस्सा भी आता है और हंसी भी....मैं मीडिया से जुड़ा हूँ इसलिए मीडिया की बात कर रहा हूँ .....आज ऑफिस में वही हुआ जो हर रोज़ होता है ...मेरी शिफ्ट ख़त्म ही चुकी थी बल्कि हर रोज़ की तरह एक घंटे ज्यादा ही ऑफिस को दे चूका  था .....मैंने अपने बॉस से कहा कि मैं अब जा रहा हूँ ...उनका कहना था रुक जा थोड़ी देर ...मैंने कहा सर मेरी शिफ्ट ख़त्म हो चुकी है ...उनका कहना था फिर क्या हुआ ....घर जा के क्या करना है ??? कुछ काम है क्या ???..... मैंने कहा नहीं ...फिर उनका कहना था कि फिर रुक जा क्या प्रॉब्लम है ??? मैंने कहा इंसान हूँ सर थक जाता हूँ ...उनका कहना था यहाँ कोई लेबर वाला काम थोड़े हीं करवाया जाता है जो थक जाते हो .....मैंने कहा सर मानसिक रूप से तो थक ही जाता हूँ....फिर इनका कहना था अभी सीख रहे हो ज्यादा टाइम दिया करो .. फिर तो बस वही डाइलोग याद आया   " बॉस इज़ ऑलवेज राईट"  :-p  ... पर सर शायद भूल गये कि सीखने के लिए हर दिन 9 घंटे काफी होते हैं ...सब कुछ का एक डोज होता है और ओवरडोज का रिजल्ट अच्छा नहीं होता...मुझे ऑफिस में एक्स्ट्रा टाइम देने में कोई प्रॉब्लम नहीं पर अगर हर दिन आप एक्स्ट्रा टाइम दो और बदले में आपको न हीं मोटिवेशन मिले, न हीं तारीफ मिले और न ही कुछ और ...कुछ और मतलब आप समझ ही गये होंगे...  खैर कुछ और कि उम्मीद तो मैं करता ही नहीं कम से कम फ्री वाली चीज़... तारीफ तो दे दो ...पर वो भी नहीं बस बॉस का अपना काम निकालने से मतलब हैं ...बॉस ये भी नहीं समझते कि  "हम मज़बूर ज़रूर हैं मगर किसी के गुलाम नहीं"  ....अगर मेरी इस बात से बॉस नाराज़ होतें हैं तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता ...क्यूंकि इसमें मेरी कोई गलती नहीं ...  .....मीडिया लोगों के शोषण के मुद्दे बड़े जोर शोर से उठता है पर जो मीडिया में लोगों का शोषण हो रहा है ..उनकी बात कौन उठाएगा ....मैंने तो यही देखा है कि खास करके इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इंसान को इंसान नहीं समझा जाता है ......

Sunday, 18 August 2013

चलो नेता बने ....


मेरे पिता जी के जैसे लाखों करोड़ों पिताओं के सपने चकनाचूर हो रहे हैं...हर पिता का सपना होता है कि उसका बेटा उनका नाम रोशन करेगा ...पर बहुत कम ही पिताओं का यह सपना सच हो पाता है ....आज के युवाओं को उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बावजूद अच्छी नौकरी नहीं मिल पाती...युवाओं के दिल के सारे अरमान आसुंओं में बह जाते हैं...बड़ा दुखदायी होता है ये लम्हा इक ही पल में बेटा और बाप दोनों का ख़ाब बिखर जाता है...इन्ही परेशानियों को दूर करने के लिए मैंने सोचा है कि नेता बन जाऊ...नेता बनने से आज के युवा काफी घबराते हैं...इस फील्ड में भीड़ भी कम है... सोचता हूँ अपना समय पढाई की जगह नेता बनने में लगाया होता तो आज कुछ न कुछ ज़रूर बन जाता...यार इस फील्ड में स्कोप भी बहुत है, पंचायत के सरपंच, मुखिया से लेकर मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री,राष्ट्रपति तक बनने का स्कोप है. अरे लाख पढाई कर लो आपको कोई भी पढाई प्रधानमंत्री की कुर्सी तक नहीं पंहुचा सकती, आप लाख पढाई कर लो काम तो नेता जी के अन्दर ही करोगे ना... और पैसे तो हैं ही चाहे आप सरपंच ही बन जाओ, इसमें कमाई बहुत है...आप पूरी जिंदगी नौकरी कर के एक फटफटी स्कूटर से लेकर ज्यादा से ज्यादा लखटकिया( नैनो ) तक पहुँच सकते हो पर इक बार भी आप अगर अपने गाँव का सरपच बन गये तो आपके पास बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ होंगी और पढ़े लिखे लोग भी सरपंच साहब कहकर बुलाएँगे... और इज्ज़त तो है हीं, भले आप पीछे में गालियाँ निकालो पर सामने तो नेता जी हीं कहोगे ...और नेता जी का नाम पूरा देश न सही उस क्षेत्र के सारे लोग तो जानते ही है ..इस तरह नाम भी रोशन हो जायेगा और पिता जी भी खुश ...नेताजी कहने पर आप अपने आँखों के सामने सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओ का अक्स मत उभारना...वो तो बीती बात हो गयी है अब नेता बनने का मतलब सेवा करना नहीं है..नेता बनना एक पेशा बन गया है, एक रोज़गार बन गया है, जिसके ज़रिये कोई भी इन्सान बहुत कम समय में नाम, दौलत, शोहरत सब कुछ पा सकता है... नेता बनने के बाद आपके पास पॉवर आ जाती है फिर आपको किसी के पास नौकरी के लिए दौड़ना नहीं पड़ता बल्कि आपके कहने पर किसी को भी नौकरी मिल सकती है..आपकी सिफारिश को किसी में टालने की हिम्मत नहीं होती...आज के लोग नेता बनने से बड़े भागते हैं...मैं तो कहता हूँ जब नेता बनना एक पेशा बन गया है तो क्यूँ ना नेता बनने का कोर्स भी शुरू कर दिया जाये ...फिर देखना कैसे लोग डॉक्टर और इंजीनियरिंग की पढाई छोड़ कर नेता बनने का कोर्स ज्वाइन करेंगे और फिर घर वाले भी नेता बनने के लिए प्रोत्साहित करेंगे...लोग कहते हैं नेता बड़े भ्रस्त होते हैं...मैं तो कहता हूँ नेता बनने की प्रोफेशनल डिग्री शुरू कर ही दो ताकि जैसे आज हर फील्ड में प्रोफेशनल लोगों की भरमार होने की वजह से उनकी सैलरी बहुत कम हो गयी है..वैसे ही नेताओं के फील्ड में भी प्रोफेशनल्स के भरमार होने पर इनकी इनकम भी कम हो जाएगी..फिर शायद गरीबी और अमीरी का फासला कुछ कम हो जायेगा ...
               
                                                                            गजेन्द्र कुमार 

Friday, 16 August 2013

पंजाब ......

       
ऐ पंजाब मैंने तो मुहब्बत की थी,
यूँ साज़िश न कर आहिस्ते-आहिस्ते ...
तू बेवफा निकला ,
यूँ काँटें न बिछा रस्ते-रस्ते ...
तेरी यही है मर्ज़ी,
तो छोड़ दूंगा तुझे धीरे-धीरे...
कुछ वक़्त और झेल ले मुझे,
अभी आऊंगा मिलने महीने-महीने.....
दर्द कम ख़ुशी ज्यादा, आंसू कम हँसी ज्यादा
दी है तूने सफ़र ऐ पंजाब के रस्ते-रस्ते ...
अहसान है तुम्हारा, मांग लेना जो दिल चाहे
सब कुछ दे दूंगा हस्ते-हस्ते ....
खुश हो लेना जी भरके
जब एक दिन चल दूंगा छोड़के सबेरे-सबेरे ...
ऐ पंजाब मैंने तो मुहब्बत की थी
यूँ साज़िश न कर आहिस्ते-आहिस्ते ...
                                                 
जब से सच लिखने लगा हूँ,
लोग कहने लगे हैं, अच्छा लिखते हो.....
                                                      गजेन्द्र कुमार
                                               

Thursday, 15 August 2013

ये अंग्रेजी मेम भी ना ......

ये अंग्रजी मेम न मुझे बड़ा परेशान करती है..बचपन से हीं मैंने हिंदी को प्यार किया..बड़ा चिढ़ती है अंग्रेजी मेम, शुरू से हीं कोशिश करती रही है कि मैं उसे पसंद करूँ, उसे चाहूँ...पर मुझसे ऐसा न हो सका, ऐसी बात नहीं है कि मैं अंग्रेजी मेम से नफरत करता हूँ ...पर पता नहीं क्यूँ अंग्रेजी मेम को मैं प्यार न कर सका...मुझे भी दुःख होता है कि जो मुझे पाने के लिए जी जान से पीछे पड़ी हो...उसके प्यार को मैं कभी समझ नहीं सका...उसे नज़रंदाज़ करता रहा...पर क्या करूँ हिंदी ने मुझे बचपन से अपना प्यार दिया है, उसके प्यार और दुलार ने कभी अंग्रेजी मेम के बारे में सोचने का मौका हीं नहीं दिया...अंग्रेजी मेम शुरू से हीं परेशान करती आई है, इसलिए मेम को अभी तक बहला-फुसलाकर, थोड़ा-बहुत प्यार करके परेशानी दूर कर लेता था....पर अंग्रेजी मेम अब चाहती है कि मैं उसे दिलोंजान से चाहूँ..ये तो नहीं हो सकता जिस हिंदी ने मुझे बोलना सिखाया, मुझे पढ़ना सिखाया, मुझे अच्छी तालीम देकर मुझे एक अच्छा और योग्य इंसान बनाया...उसके प्यार को कैसे भुला सकता हूँ...किसी के प्यार के साथ गद्दारी कैसे कर दूँ...अंग्रेजी मेम मुझे हर हाल में पाना चाहती है,यही कारण है कि अब मुझे सिर्फ परेशान हीं नहीं करती, दूसरों के सामने मेरी बेज्ज़ती भी करवाने लगी है....अंग्रेजी मेम जैसे हिंदुस्तान के अन्य लोगों को ज़बरदस्ती अपनाया है वैसे हीं ज़बरदस्ती मेरे साथ कर रही है...मेरी बेज्ज़ती करवाकर मुझे अंग्रेजी जानने वालों के सामने नीचा दिखाने की कोशिश करने लगी है....बड़ा दुःख होता है जब हमारे जितना ही शिक्षा ग्रहण करने वाले और हमसे कम ज्ञान वालों को अच्छी नौकरी और इज्ज़त सिर्फ इसलिए मिल जाती है कि वो अंग्रेजी जानता है... क्या ये ग़लती है कि मैंने हिंदी भाषा को चुना, हिंदी में पढ़ाई की, मेरी परवरिश हिंदी के वातावरण में हुई ??? अगर ये मेरी ग़लती है तो मैं भारत सरकार से अपील करना चाहता हूँ की हिंदी की पढ़ाई तत्काल बंद कराकर पढ़ाई अंगरेजी में शुरू करा दें, ताकि आने वाले हिंदी भाषी पीढ़ी ये असमानता महसूस न कर सके...अगर सरकार ऐसा नहीं कर सकती तो हिंदी को लेकर जो आज के युवाओं में हीन भावन आ रही है उसे कृपया दूर करने की कोशिश करे...हिंदी की उपेक्षा के कारण अंग्रेजी नहीं जानने वालों को कम करके आका जाता है, अंग्रेजी जानने वालों को श्रेष्ठ माना जाता है भले वो हिंदी जानने वालों से कम जानकारी रखते हों...सरकार कभी क्या हिंदी और अंग्रेजी के पेशोपेश में पड़े छात्रों की पीड़ा समझने की कोशिश की है अगर नहीं तो कम से कम अब शुरू कर दे...मुझे पता है अंग्रेजी न जानने की वजह से मैंने बहुत कुछ खोया है और अब मैं और खोना नहीं चाहता...यही पाने की चाहत मुझे भी बेदर्द अंग्रेजी मेम को अपनाने पर मजबूर कर देगी ....पर मैं जानता हूँ की अंग्रेजी मेम ज़बरदस्ती मुझे हासिल तो कर लेगी पर मेरा प्यार नहीं पा सकेगी...मैं हिंदी को नहीं छोड़ सकता और न मुझे हिंदी छोड़ सकती है....शायद आने वाली पीढ़ी हिंदी को भुला दे पर मैं ऐसा नहीं कर सकता....

                                                                                                                    गजेन्द्र कुमार  

Wednesday, 14 August 2013

स्वतंत्रता दिवस पर क्या वाकई ख़ुशी होती है ???

हरबार की भांति इसबार भी स्वतंत्रता दिवस आने वाला है.. कल फेसबुक, ट्विटर के साथ-साथ और भी कई सोशल नेटवर्किंग साईटस पर शुभकामनाओं की बाढ़ सी आ जाएगी..लगता है जैसे लोग स्वतंत्रता दिवस के आने पर बहुत ख़ुश होते हैं, पर क्या वाकई ऐसा है ??? मुझे तो ऐसा बिल्कुल नहीं लगता..भारत को युवाओं का देश कहा जाता है, यहाँ सबसे ज्यादा युवा हैं...देश की रीढ़ होतें हैं युवा, देश की उर्जा होतें हैं युवा, देश का भविष्य होता है युवा....पर क्या वाकई आज के युवा खुश हैं ??? ये सवाल आज क्यूँ खड़ा हो रहा है, किसी ने जानने की कोशिश की है ??? शायद नहीं ...देश का युवा आज भारी निराशा के दौर से गुज़र रहा है...युवाओं के सामने रोज़गार एक बहुत बड़ी चुनौती है...रोज़गार न मिलने की वजह से आज का युवा वर्ग घोर निराशा के दौर से गुज़र रहा है...आज के युवा काफी पढ़े-लिखे होतें हैं इसके बावजूद इन्हें रोज़गार नहीं मिलता.. इनकी डिग्री की कोई अहमियत नहीं रह गयी है...किसी को अगर रोज़गार मिल भी जाता है तो उन्हें इतना कम पैसा मिलता है कि वो अपनी सैलरी किसी को भी बताने से हिचकिचाता है.. ये युवा फिर अपनी तुलना उन अनपढ़ मजदूर से करने लगतें हैं जो हर महीने इनसे कही ज्यादा कमा लेते हैं...उन्हें फिर अपनी पढाई पर खर्च किये गये धन, समय और मेहनत पर काफी अफ़सोस होता है..इन परिस्थितियों के लिए वो खुद को जिम्मेवार समझ लेते और अन्दर ही अन्दर घुटते रहतें हैं, पर क्या सच में इन परिस्थितियों के लिए  युवा खुद जिम्मेवार है ??? युवा हीनभावन से ग्रस्त हो जाते हैं, वो अपने माता-पिता से आँख नहीं मिला पाते, अपने सगे-सम्बन्धियों से मिलने से भी कतराते हैं...क्यूँकि, उन्हें डर होता है की कहीं कोई सैलरी न पूछ ले....बेचारे युवा घुट-घुट कर जीने पर मजबूर हैं...इतनी सैलरी में वो न ठीक ढंग से रह सकते हैं, न अच्छा खाना खा सकते हैं न हीं अपना कोई और शोक पूरा कर सकता है...अगर उसकी शादी हो गयी है तो फिर वो अपना घर कैसे चलता है उसी को पता होता है...जो उच्च पद पर बैठे हैं उनका वेतन लाखों में होता है पर इन युवाओं का वेतन बस कुछ हज़ार होता है.. ये मानता हूँ कि वरिष्ठ लोगों कि सैलरी ज्यादा होनी चाहिए मगर ये ज़मीं असमान का फर्क कही से सही नहीं है...एक युवा बेचारा कुछ भी खरीदने से पहले दस बार सोचता है, वही वो लोग बेकार चीजों को खरीदकर अपने शान ओ शोकत का दिखावा करते हैं...युवा के पास एक स्कूटर भी नहीं होता और उनके पास महंगी-महंगी गाड़ियाँ होती है..बेचारे युवा काम भी आठ से दस घंटे करते हैं फिर भी उनकी दैनिक ज़रूरतों को पूरा करने में सोचना पड़ता है ....ऐसी स्वतंत्रता से क्या फायदा जिसमें इंसान घुट-घुट कर जीता हो...निराशा ने युवाओं को उर्जा विहीन कर दिया है बेचारे अपनी आवाज़ भी बुलंद नहीं करते, जबकि उन्हें पता होता है कि उनका शोषण हो रहा है...उन्हें डर होता है कि आवाज़ उठाने से कहीं उनकी जॉब हीं न चली जाये...सरकार राग अलापा करती है कि हम रोज़गार का सृजन कर रहे हैं...ऐसी रोज़गार कि सृजनता से क्या फायदा जहाँ उनकी पढाई-लिखाई कि क़द्र ही नहीं होती हो, जो उनकी आम ज़रूरतों को भी पूरा नहीं करती...स्वतंत्रता का मतलब ये तो नहीं होता.....
ऐसा सिस्टम क्या सही है की इक इंसान रोज़ शाही पनीर खाता हो तो दूसरा एक सुखी रोटी खाने के लिए तरसता हो ...देश का भविष्य अगर युवा है और आज के युवाओं का हाल ऐसा है तो आगे क्या होगा ये सोचकर डर लगता है ........
                                       
                                                                                               गजेन्द्र कुमार 

Tuesday, 13 August 2013

हालात.....

ना खुल के रो पाता हूँ, ना खुल के हँस पाता हूँ 
कुछ ऐसे हैं हालात मेरे ......
अब तो अपने भी अपने नहीं लगते 
कुछ ऐसे हैं हालात मेरे ....
ये मेरी गलती है या नहीं, ये समझ नहीं पाता 
कुछ ऐसे हैं हालात मेरे ......
वक़्त मुझसे इतना नाराज़ क्यूँ हैं, ये समझ नहीं पाता 
कुछ ऐसे हैं हालात मेरे..... 
हर किसी के नज़र में अब आग है मेरे लिए 
कुछ ऐसे हैं हालात  मेरे.... 
कब बदलेंगे हालात मेरे, ये पता नहीं मुझे 
कुछ ऐसे हैं हालात मेरे.... 
क्या करूँ मैं कुछ समझ नहीं पाता
 कुछ ऐसे हैं हालात मेरे .....
ना खुल के रो पाता हूँ, ना खुल के हँस पाता हूँ 
कुछ ऐसे हैं हालत मेरे ......
                                                                              
                                                                        गजेन्द्र कुमार 

Saturday, 10 August 2013

हाँ मैं बेरोजगार हूँ ....


हाँ मैं बेरोजगार हूँ , एक रोज़गार ढूंढ़ता हूँ. रोज़गार ढूँढना हीं मेरा रोज़गार बन गया है. मेरे पास अच्छी-अच्छी डिग्री है, बड़ी संभाल के रखता हूँ डिग्री के इन कागजों को, इतना ख्याल अपना भी नहीं रखता. आखिर इसी से तो मेरी जिंदगी का आकलन कुर्सी पर बैठे कुछ लोग करेंगे कि मैंने किया क्या है अब तक...पहले जो बड़ा होनहार लड़का कहा करते थे वो अब मुझे धरती का बोझ समझते हैं...बड़ी चिढ होती है अब होनहार शब्द से .. बड़ी उम्मीद के साथ जाता हूँ हर एक इंटरव्यू में पर बात नहीं बनती... बड़ी घबराहट होती थी शुरुआत में जब इंटरव्यू देने जाता था...अब बड़े आत्मविश्वास के साथ इंटरव्यू देने जाता हूँ जैसे की मुझे पता है कि क्या होने वाला है .. ये इंटरव्यू लेने वाले भी न अजीब होते हैं, कहते हैं आपके पास फील्ड एक्सपीरियंस नहीं है. अब इनकों यही समझ में नहीं आता कि आप मौका हीं नहीं दोगे तो एक्सपीरियंस कहाँ से आएगा.... इंटरव्यू के लिए मेरे जैसे कई होनहार लोग आते हैं, उनसे बात होती है तो पूछने लगते हैं कि आपकी कोई सिफारिश है ??...सुना है सिफारिशें  बहुत चलती है आजकल ...आजकल सिफारिश वालों की जुगाड़ में हूँ पर कोई मिलता ही नहीं,,, काश मेरे परिवार में भी कोई नेता होता, नेताओं की सिफारिश बड़ी कारगर होती है...नेताओं को देखकर सोचता हूँ, ये नेता भी तो बेरोजगार हीं होते हैं जबरदस्ती दूसरों की सेवा करना अपना रोज़गार बना लेते हैं..इसके लिए किसी डिग्री की भी ज़रूरत नहीं होती, फालतू का टाइम बेस्ट किया पढाई में, अगर इतनी मेहनत इस फील्ड में की होती तो आज लोगों की सिफारिश मैं करता...पर मैं तो बेरोजगार हूँ मेरी कोई नहीं सुनता ...मेरी आँखें झुक जाती है जब कोई पूछता है क्या करते हो...बस धीरे से कहकर चल देता हूँ कि रोज़गार ढूंढ़ता हूँ.....

Thursday, 1 August 2013

हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है...



नेताजी हम कुछ नहीं बोलेगा...हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है ...हमारे देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सिर्फ आप जैसे नेताओं के लिए है..नेताओं के सिवा अगर कोई और कुछ भी बोले तो आपलोगों को बड़ा दुःख होता है...लेखिका शोभा डे के ट्वीट " मुंबई को भी एक अलग राज्य बना देना चाहिए " से आप सभी माननीये राजनेताओं को बड़ी ठेस पहुंची...आप सभी नेतागण आगबबूले होकर शोभा डे पर तीखी टिपण्णी देनी शुरू कर दी... इसी तरह पिछले हफ्ते नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने जब कहा की प्यारे नरेन्द्र मोदी जी को मैं प्रधानमंत्री के रूप में देखना नहीं चाहता तो भी हमारे सेवा के लिए तत्पर आप राजनेताओं को बड़ा दुःख हुआ...अमर्त्य सेन जी को तो आपने भारत छोड़ने तक की आपने सलाह दे डाली...प्यारे असीम त्रिवेदी भाई ने तो कुछ बोला भी नहीं था बल्कि चित्रकारी की थी इसकी वजह से उसे जेल भी जाना पड़ा...एक और चित्रकार स्वर्गीय एम एफ हुसैन साहब ने भी अपनी चित्रकारी दिखाई थी इसकी उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी...पूरी जिंदगी भारत में गुजारने के बाद जिंदगी के आखिरी लम्हों में उन्हें देश छोड़कर जाना पड़ा...मरने के बाद भी उन्हें अपने कर्मभूमि की मिट्टी तक नसीब नहीं हुई .... वही हमारे शुभचिंतक आप राजनेताओं को कुछ भी बोलने का अधिकार है...नरेन्द्र मोदी अगर इन्सान की तुलना कुत्ते से करते हैं तो उसमें कुछ भी गलत नहीं दिखता, नेता अगर घोटाला करे तो आपको गलत नहीं दिखता.. बालठाकरे कुछ भी बोले तो भी गलत नहीं दिखता....राज ठाकरे जब उत्तरभारतीयों को लेकर अनाप-सनाप कुछ भी बोलता है तो भी आप नेताओ को कुछ भी गलत नहीं दिखता.. आप चुप-चाप मुह पर हाथ रखकर बैठे रहते हैं, पर अगर आम जनता कुछ भी बोले तो आपको असहनीय पीड़ा होती है और मीडिया के सामने आकर आम जनता के लिए बड़ी मीठी-मीठी भाषा के ज़रिये बड़े अच्छे-अच्छे सलाह देने लगते हैं, जो की हमारे और हमारे देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है ...ये हम मानते है की आपको बोलने की अच्छी कला आती हैं पर आप गलत करोगे तो हम चुप नहीं रहेगा..फिर हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है ...

                                                                                    गजेन्द्र कुमार 

Wednesday, 31 July 2013

बँटवारा....

बँटवारा एक ऐसा शब्द है जिससे आजतक किसी का हित नहीं हुआ है. अब तेलंगाना आन्ध्र प्रदेश से अलग  होकर एक नया राज्य बनने जा रहा है...लोगों का तर्क है कि छोटे राज्य बनने से राज्य का विकास ज्यादा होगा ...२००० में इसी तरह तीन नये राज्य बने थे झारखण्ड, उत्तराखंड तथा छत्तीसगढ़...इन राज्यों के बने हुए १३ साल हो गये और इनका कितना विकास हो गया ये हम सभी जानते हैं...अगर छोटा राज्य विकास का पैमाना होता तो फिर छोटे राज्य विकास में सबसे आगे होते पर ऐसा बिलकुल नहीं है... अगर छोटे राज्य या छोटे क्षेत्र होना ही विकास की गारंटी होती तो भारत के बंटवारे के बाद आज पाकिस्तान  विकास में हमसे काफी आगे होता, उसी तरह बांगलादेश को भी भारत से आगे होना चाहिए था और भारत को चीन से आगे होना चाहिए था पर क्या ऐसा है नहीं ना ...राज्य या देश का विकास अच्छे प्रशासन और अच्छी नीतियों से होता है ना की राज्यों को बांटकर छोटा करने से .. ये राजनेता अपने हित को देखकर नये राज्यों का निर्माण कर देते हैं... आकड़ों की बाजीगरी दिखाकर लोगों के सामने ऐसे आंकड़े पेश करतें हैं कि वाकई ऐसा लगता है की छोटे राज्य बनने से राज्य का विकास हो रहा पर क्या वाकई ये सच्चाई है, मुझे तो ऐसा बिलकुल नहीं लगता क्यूँकि लोगों को आज भी गरीबी, भुखमरी और बेरोज़गारी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है... आकड़ों की बाजीगरी ही है कि २८ रूपये कमाने वाले को सरकार गरीब नहीं मानती ...बंटवारे हमारे परिवार के बीच भी होतें है और बँटवारा बहुत दुखदायी होता है ..बँटवारा अपनों के बीच नफरत पैदा करती हैं, बटवारे के बाद हम स्वार्थी हो जाते हैं...हम दूसरों के बारे में सोचना बंद कर देते हैं... पाकिस्तान के बंटवारे ने लोगों को कितना दुःख दिया , इतनी नफरत पैदा की कि आज भी पाकिस्तान को हम अच्छी नज़र से नहीं देखते..शहरों में विकास तेज़ी के साथ हो रहा है यहाँ का परिवार भी काफी छोटा होता और लोगों का दूसरे लोगों के साथ कितना संपर्क होता है और ये लोग दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं ये हमें पता हैं....तेलंगाना राज्य की मंजूरी मिलने के बाद कई प्रदेशों में कई और नये राज्यों की मांग जोर पकड़ रही है... पश्चिम बंगाल से गोरखालैंड, महाराष्ट्र से विदर्भ, बिहार से मिथलांचल की माग हो रही है तथा उत्तरप्रदेश को चार राज्यों में बटने की मांग हो रही है...ऐसा नहीं था की सरकार को इस बात की आशंका नहीं थी पर सरकार को तो समय देखकर अपना हित ही देखना होता है ना...भुगतना तो आम आदमी को पड़ता है ...मैं तो बस इतना जनता हूँ कि बंटवारा किसी भी समस्यां का समाधान नहीं है...ये तो बस लोगों को भाषा, धर्म और जाती के नाम पर बंटा जा रहा है,, जो लोगों के बीच नफरत तथा वैर का बिष घोल रही है...
                                                                                                                        गजेन्द्र कुमार 

Monday, 29 July 2013

ये जो पब्लिक है सब जानती है ....

ये जो पब्लिक है सब जानती है ....

 इस बात से मैं भी इतेफाक रखता हूँ कि ये जो पब्लिक है सब जानती है... पब्लिक से कुछ भी छुपा नहीं है...जैसे की कल-परसों ग्रेटर नोएडा की एसडीएम और आईएएस अफसर दुर्गा शक्ति नागपाल को उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार ने सस्पेंड कर दिया था। इसके पीछे सरकार धार्मिक सौहार्द को ख़तरे में डालने की वजह बता रही थी। अब पब्लिक यानी जनता अच्छी तरह जानती है की आईएएस अफसर के कड़े कदमों से सौहार्द ख़तरे में था या फिर यू.पी सरकार को खतरा था... हर ईमानदार अफसर को ऐसे ही कुछ न कुछ वजह बताकर या फंसाकर सरकार बाहर का रास्ता दिखाती है... सरकार को ऐसे अफसर चाहिए जो सरकार की हाँ में हाँ मिलाये और जनता की सेवा न करके सरकार की सेवा करे. जनता सब जानती है की अफसर को हटाने की वजह क्या है.... पब्लिक को सरकार के प्रति नाराज़गी जताने की जगह पब्लिक तो खुश होकर कहती है कि मैं तो जानता हीं था एक न एक दिन तो ऐसा होना ही था...ऐसी पब्लिक कुछ जाने या न जाने क्या फर्क पड़ता है...पब्लिक सब जानती है की कॊन नेता भ्रष्ट है और कोन नहीं ..फिर भी मजाल है की ईमानदार व्यक्ति को वोट करेंगें .....नेतागिरी आजकल वयवसाय बन गया है, जितना ज्यादा इन्वेस्टमेंट उतना ज्यादा फायदे का सौदा है नेतागिरी ...नेता आजकल सेवा करने के लिए नहीं सेवा लेने के लिए बन रहे हैं... पब्लिक ये भी जानती है कि  नेता हमारे सेवा करने के लिए बनते हैं फिर भी पब्लिक उनकी सेवा में लगी होती हैं. और तो और ज्यादातर पढ़े-लिखे अफसर भी नेताओं की भक्ति में ही लीन रहते हैं...ना जाने कैसे ये पढ़े-लिखे अफसर भी भ्रष्ट और अनपढ़ नेताओं की चापलूसी करना पसंद करते हैं ???  ना जाने कैसे इनका ईमान और ज़मीर इसकी इज़ाज़त देता है ????  और जो नेताओं की भक्ति नहीं करते उनका क्या हश्र होता है ? ये  पब्लिक अच्छी तरह जानती है... बेचारे ये अफसर कब से पुलिस सुधार की मांग कर रहे हैं ताकि ये नेताओं के हाथ की कठपुतली ना बने पर इनकी सुनता कोन है ....नेताओं के सामने ये बेचारे नज़र आतें हैं पर पब्लिक के सामने आते ही यही शेर बन जाते हैं.....बड़ी अजीब विडंबना है....मीडिया वाले चिल्लाते रहतें हैं ..ये पब्लिक है सब जानती हैं ये जो पब्लिक है ....ऐसे मरे हुए पब्लिक के जानने ना जानने से क्या फर्क पड़ता है ....मीडिया जी अगर आप चाहो तो मरे हुए पब्लिक को भी जगा सकते हो ...पर आप तो बस चिल्लना जानते हो ना, क्यूँ की  टी. आर. पी(TRP) भी तो इसी से बढती है ना ...मीडिया जी आप भी ना बस कहने के लिए आज़ाद हो ...है ना ??? अगर मैं गलत कह रहा हूँ तो ये भी चिल्ला-चिल्लाकर कहना, क्यूँ कि ये जो पब्लिक है सब जानती है .....

                                                                                                                          गजेन्द्र कुमार 

Saturday, 27 July 2013

एक चिट्ठी माँ के नाम .......

मेरी प्यारी माँ ,
                   सादर प्रणाम .

                  माँ, यूँ तो तुम हमेशा याद आती हो पर कभी-कभी बहुत ज्यादा याद आती हो. खासकर तब, जब मैं यहाँ भूखा होता हूँ और कोई पूछने तक नहीं आता कि खाना खाया की नहीं और एक तुम हो जो की भूखे नहीं होने पर भी बार-बार खाने के लिए कहती थी. बार-बार खाने के लिए पूछने के कारण मैं झल्लाकर तुमपर गुस्सा हो जाता था फिर भी तुम नहीं मानती थी और खाना खिलाकर ही दम लेती थी. माँ कभी-कभी यहाँ का बेस्वाद खाना खाते वक़्त वो बातें याद आतीं है, जब घर होने पर मैं तुम्हारे साथ एक हीं थाली में खाना खाता था तो भाभी अक्सर कहती थी कि आप अब बच्चे नहीं रहे जो माँ के साथ एक ही थाली में खाओ. इतना कहतें ही हम दोनों हँस पड़ते थे और भाभी भी मुस्कुराते हुए वहीँ बैठकर मुझे छेडती और परेशान करने लगती.  बचपन खत्म होते ही पढाई को लेकर मैं हमेशा तुमसे दूर ही रहा. आपने भी यही सोचा होगा कि पढ़ाई खत्म होने के बाद मेरा बेटा मेरे पास रहकर नौकरी करेगा. सब कुछ इतना आसान कहाँ है माँ, नौकरी मिल भी जाये तो पता नहीं घर से कितना दूर होगा....पढाई और नौकरी रिश्तों के बीच दूरियां पैदा कर रही है. ज़िन्दगी के लिए दोनों ज़रूरी है पर क्या रिश्ते ज़रूरी नहीं हैं ??? रिश्तों के बिना ज़िन्दगी भी, क्या ज़िन्दगी है ??? माँ कभी-कभी ना इस सुनसान कमरे में अपने रिश्तेदारों की बहुत याद आती है, उस वक़्त बस खट्टी-मिट्ठी यादों के पिटारे से पुरानी बातें, छेड़खानियाँ, हँसी-ठिठोली याद कर मुस्कुरा लेता हूँ और सोचता हूँ ऐसा वक़्त कभी ना कभी फिर मिलेगा. बड़ा अच्छा लगता है पुरानी यादों को ताज़ा करने में पर माँ तुम बहुत याद आती हो, कभी कभी तो अकेले में रो भी लेता हूँ.

                    हरबार छुट्टी खत्म होने पर जब मैं घर से विदा होता हूँ तो दिल भारी हो जाता है. जब तुम विदा करते समय अपनी डबडबाई आखों के साथ मुझे गले लगाती हो और फिर मेरे चेहरे को चूमने के बाद हाथ हिलाकर विदा करती हो तो कलेजा फट सा जाता है. लगता है जैसे छोटे बच्चे की तरह तुमसे लिपटकर मुझे दूर न करने की ज़िद करूँ पर कम्बखत मैं ऐसा भी नहीं कर सकता. मुझे ये भी पता है माँ, तुम्हारी आँखों से बहते खामोश आसूँ ये चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे होतें हैं कि बेटा मुझे छोड़कर मत जा और फिर तुम दिल को समझा लेती हो कि बेटा कुछ बनने जा रहा है... कितना मुश्किल होता होगा वो पल माँ है ना.  तुम हमेशा कहती हो कि मेरी एक बेटी होती तो अच्छा होता पर बेटी ना होने के वाबजूद बेटी की विदाई जैसा पल बार-बार तुम्हें मिलता है... तुम महान हो माँ जो चुप-चाप हर बार दर्द को सह लेती हो. मुझे बड़ा दुःख होता है माँ , मैं बहुत शर्मिंदा हूँ माँ कि मैं आज भी आपके पास नहीं हूँ जबकि आपकी उम्र ढल रही है, आप अक्सर बीमार रहतीं है, इस वक़्त आपको मेरी बहुत ज़रूरत होती है और मैं यहाँ बैठकर मोबाइल से बस आपका हाल पूछता रहता हूँ..... तुम महान हो माँ, इतने कष्ट के वाबजूद मुझे रुकने के लिए नहीं कहती. ये सब सिर्फ मेरे लिए करती हैं ना आप, ताकि मेरी जिंदगी बन जाये पर माँ आप ही तो मेरी जिंदगी हो ...
                                                            जी करता है सबकुछ छोड़कर तुम्हारे पास आ जाऊ पर इससे भी तो तुम्हे दुःख हीं होगा और मेरा कमीना दिमाग भी इसकी इज़ाज़त नहीं देता पर कब तक इस कमीने दिमाग कि बात मानता रहूँ ,आखिर कब तक माँ ??? तुम बहुत भोली हो माँ जो तुम समझती हो कि मुझे नौकरी घर के पास ही मिल जाएगी और मैं तुम्हारे साथ रहूँगा. जहाँ तक मुझे दिखाई दे रहा है अभी साथ होने के कोई आसार नहीं है . मुझे माफ़ करना माँ, मैं तुमपर कई बार गुस्सा भी हो जाता हूँ जैसेकि इसबार घर से वापिस आने के वक़्त तुम मेरे लिए अपने हाथों से बने पकवान मेरे बैग में डाल रही थी और मैंने मना कर दिया कि मत डालो. फिर भी आपने डाल दिए और मैं आप पर गुस्सा हो गया. पता नहीं क्यूँ वापसी के वक़्त मेरा दिमाग कुछ गर्म हो जाता है.. आखिर वो पकवान किसके लिए दे रही थी, मेरे लिए ही ना , बाद में ट्रेन में मेरी भूख को शांत इसी पकवान ने ही किया. तब मुझे अपने आप पर अफ़सोस और आपके प्यार पर गर्व हो रहा था.
                                                                अभी भी मैं छुट्टी होने का इतज़ार करता रहता हूँ ताकि आपका लाड़-दुलार पा सकूँ. घर आने पर मेरी पसंद की चीजें बनाकर मुझे खिलाती हैं और आप कितना खुश होती हो, कितना सुकून होता है आपके चेहरे पर, यही तो माँ होती है, मैं आपको कभी खोना नहीं चाहता माँ... आपकी जगह कोई भी नहीं ले सकता माँ... मैं बहुत खुदगर्ज़ हूँ माँ, आपने मेरे लिए क्या कुछ नहीं किया पर मैं चाहकर भी आपके लिए कुछ नहीं कर सका...हो सके तो मुझे माफ़ करना ....मुझे पता है ये ख़त पापा आपको पढ़कर सुना रहे होंगें और उन्हें दुःख हो रहा होगा कि मेरे बारे में कुछ नहीं कहा.. पापा ये सारी बातें सिर्फ माँ के लिए नहीं है आपदोनों के लिए है ...वैसे भी माँ शब्द इतना प्यारा लगता है कि माँ कहना बड़ा अच्छा लगता है ...आपसे भी मैं उतना ही प्यार करता हूँ जितना माँ से ...वैसे नाराज़ मत होइएगा जल्दी ही मैं आपके नाम की भी चिट्ठी लिखूंगा ...
                                                                         
                                                                                                                आपका मज़बूर बेटा .....

   
                                                                                                                                          गजेन्द्र कुमार 

बस यूँ ही ...


 माफ़ करना आधुनिकता के इस ज़माने में मैं चिट्ठी को याद करने की गुस्ताखी कर रहा हूँ. एक तरफ जहाँ लोग चिट्ठी को भूल रहे हैं वही मुझे पता नहीं क्यूँ अब चिट्ठी लिखने का जी कर रहा है. मुझे याद है मैंने बचपन में कई चिट्ठियां अपने घर पर भेजी थी जब मैं घर से दूर हॉस्टल में रहा करता था और तब मेरे घर पर टेलीफोन नहीं हुआ करता था. मेरी चिट्ठी पढ़कर माँ की आँखें डबडबा जाती थी और पापा बड़े खुश होते थे की मेरा बेटा बहुत अच्छा लिखता है. चिट्ठी लिखने के लिए मैं सब दोस्तों को झूठ बोलकर अकेले होने का मौका ढूंढता था. हॉस्टल में अकेले होने का वक़्त कम ही मिल पाता था इसिलए मैं कभी-कभी दोस्तों से बहाना बनाता और शाम को जब वो खेलने जाते थे तब मैं चिट्ठियां लिखा करता था. देर-सबेर टेलीफोन ने मेरे घर में भी दस्तक दे ही दिया उसके बाद तो चिट्ठी से रिश्ता ऐसा टूटा की आज याद आया. टेलीफोन आने के बाद घर में टेलीफोन की घंटी बजती तो घर में दूर बैठा मैं दौड़कर टेलीफोन उठा लेता था. हालाँकि कोई भी फ़ोन मेरे लिए नहीं होता था फिर भी फ़ोन की घंटी बजने पर मैं दौड़कर फ़ोन उठा लेता था. फ़ोन ज्यादातर पापा के लिए होता था या फिर पड़ोसिओं के लिए, पड़ोसिओं को बुलाने का काम भी मैं ही करता था. टेलीफोन के प्रति बढ़ते लगाव से चिट्ठी  को बहुत दुःख हुआ होगा. धीरे-धीरे चिट्ठी का वर्चस्व कम होता गया पर चिट्ठी के इस बुरे दौर में भी प्रेम-पत्र काफी फल-फूल रहा था. मुझे याद है स्कूल के कई दोस्त कैसे अपने प्रेम-पत्र लिखवाने के लिए मुझसे गुज़ारिश करते थे. उस प्रेम पत्र में शेरो-शायरी की भरमार होती थी जो की मेरे पास पड़ी इक  शेरो-शायरी की डायरी से मेरे दोस्तों द्वारा चुनी जाती थी. प्रेम पत्र में किसी डाकिये की ज़रूरत नहीं होती थी. डाकिये का काम कोई दोस्त या लड़की की कोई नजदीकी करता/करती थी. प्रेम पत्र में प्रेमी अपनी पूरी भावना लिखता था बड़ी मेहनत से कोई प्रेम पत्र तैयार होता था. इतनी मेहनत के वाबजूद भी शायद ही कोई लड़की मानती थी पर आजकल तो फ़ोन और मेसेज से लड़कियां आसानी से मान जाती है. जबकि फ़ोन और मेसेज के ज़रिये हम अपनी भावनाओं को अच्छी तरह प्रकट नहीं कर सकते. एक बात तो साफ़ है कि जैसे-जैसे चिठ्ठी विलुप्त होती जा रही है, वैसे-वैसे हम भी भावन विहीन होते जा रहे हैं.


                                                                                                                                      गजेन्द्र कुमार

Wednesday, 8 May 2013

मज़बूरी का नाम कांग्रेस


कर्नाटक विधान सभा चुनाव का परिणाम आ चूका है। कांग्रेस पार्टी कर्नाटक में काफी लम्बे अरसे के बाद पूर्ण बहुमत  में आई है। निश्चित रूप से कांग्रेस पार्टी के लिए ख़ुशी मनाने का वक़्त है, पर देश की जनता के लिए सोचने का वक़्त है. कांग्रेस पार्टी की जीत कई सवाल खड़े करते हैं.. क्या जनता कांग्रेस पार्टी के नेताओं द्वारा किये जाने वाले घोटालों को भूल गयी है ? या फिर उन्हें घोटालों के बारे में पता ही नहीं है ? या फिर और दुसरे पार्टियों से कांग्रेस पार्टी ज्यादा ईमानदार है ? या फिर कोई और विकल्प ना होने पर मज़बूरी में कांग्रेस पार्टी ही सही ? मुझे तो यही लगता है, क्यों की कर्नाटक एक विकसित राज्य है वहां के ज्यादातर लोग शिक्षित हैं. कर्नाटक की जनता को 2G घोटाले, कोलगेट,रेल मंत्री जी का नया मामला, आदि ये सारी बातें दिमाग में ज़रूर होगी, पर करे भी तो क्या आज के दौर में कोन सी पार्टी है जो भ्रस्ट नहीं है ? ये हाल पुरे देश का है कोई भी ऐसी पार्टी नहीं है जो भ्रस्ट नहीं है ..
                                                    लोग बड़ी उम्मीद के साथ हर बार नयी पार्टी की सरकार बनाते है की अब शायद पार्टी कुछ अच्छा करेगी पर उम्मीद हर बार की तरह धूमिल हो जाती है। पार्टी की जीत के बाद पार्टी के लोग अपनी सेखी बधारने लगते हैं की मेरी पार्टी अच्छी है, ये जानते हुए की वो जनता के लिए क्या करते हैं। निश्चित रूप से ये कांग्रेस की जीत नहीं है। यह जनता की मज़बूरी है कि किसी न किसी पार्टी को तो वोट देना ही है चाहे वो भ्रस्ट ही क्यूँ न हो। और यह मजबूरी हमारे देश को बर्बादी की तरफ तेज़ी के साथ ले जा रही है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन हमारा देश पूरी तरह खोखला हो जायेगा और लोग हम पर हसेंगें...क्या ऐसा होने से हम इसे रोक सकते हैं ???????????

Friday, 19 April 2013

हँसता मीडिया रोता पत्रकार ......


आज के दौर में मीडिया शब्द आम हो चूका है. आम लोग, सरकारी कर्मचारी या फिर नेता हर किसी के जुबान पर मीडिया होता है. सबसे ज्यादा मीडिया का शब्द नेताओं के जुबान पर होता है. आए दिन उनके जुबान पर यही वाक्य सुनाई देता है कि ये सारा कुछ मीडिया का किया कराया है, मीडिया ने इसे तोड़ मरोड़कर कर पेश किया है. एक क्षण ऐसा लगता है कि आज भी मीडिया समाज और देश के लिए बहुत अच्छा काम कर रहा है लेकिन अगले ही क्षण अहसास होता है कि मीडिया तो बिजनेस मेन और राजनेताओं कि कठपुतली बन चूका है. मीडिया वही खबर प्रकाशित या प्रसारित करता है जो बिजनेस मेन और नेता चाहते हैं. मीडिया अपनी जिम्मेदारी ताख पर रखकर वही चीज़ लोगों के सामने लाती है जो व्यापार की दृष्टि से सही हो. मीडिया की मज़बूरी यह है कि सारे मीडिया ओर्गेनिजेशेन के मालिक (ओनर ) या तो कोई नेता है या फिर कोई बिजनेस मेन है और दोनों एक दूसरों को नाराज़ नहीं करना चाहते, क्यूँकि साथ मिलकर चलने में ही दोनों का फायदा है. यही कारण है कि आज मीडिया कि विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हो रहे हैं. लोगों का विश्वास मीडिया पर से उठता जा रहा है.
                                                    ज्यादातर छात्र एवं छात्राएं मीडिया के क्षेत्र में नाम और पैसे के  साथ-साथ समाज सेवा की भावन लिए हुए आते हैं पर कटु सत्य कुछ और हीं है. इस क्षेत्र में नाम और पैसे तो ज़रूर हैं पर कुछ एक लोगों के लिए, खासकर उनके लिए जो मीडिया के उच्च पदों पर विराजमान हैं. बाकि मीडियाकर्मियों का तो बुरा हाल है.मेरे कई होनहार दोस्त मीडिया से जुड़े हुए हैं. वे दो लोगों का काम अकेले करतें हैं, साथ ही इनसे 10 से 12 घंटे काम लिया जाता है पर वेतन के नाम पर उन्हें मात्र 10 या 12 हज़ार रुपयें मिलतें हैं. इनकी योग्यता भी कम नहीं है इन्होने पत्रकारिता में मास्टर डिग्री कर रखी है. ऐसी बात भी नहीं की इनमें दक्षता (स्किल) की कमी है या फिर प्रतिभा की कमी है. मौका मिलने पर ये उच्च पदों पर आसीन  लोगों से भी अच्छा काम कर सकतें हैं. अफ़सोस की बात तो ये है की मीडिया ओर्गेनैजेशन ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने के चक्कर में इनके दक्षता और प्रतिभा को नज़रंदाज़ कर रहा है. बेरोज़गारी का आलम तो देखिये कुछ पत्रकार तो 5 हज़ार से 6 हज़ार पर भी काम कर रहे हैं. जबकि इनके पास उच्च शिक्षा वाली डिग्री है. कुछ पत्रकारों को तो यह कहा जाता है कि आप खबर पर कम ध्यान देकर विज्ञापन पर ज्यादा ध्यान दें और ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन लायें. यानि अब पत्रकार भी मार्केटिंग का काम करने लगा है. अगर भूल से कोई पत्रकार महगाई का हवाला देकर पैसे बढ़ाने कि मांग करता है तो उनका सीधा सा जवाब होता है कि आप कुछ ज्यादा नहीं मांग रहे या फिर, तो कही और नौकरी ढूंढ़ लो.
                                           मीडिया ओर्गेनैजेशन के मालिक पैसों का ढेर इकठठा कर रहे हैं वही इसके कर्मचारी कम पैसे का रोना रोतें रहतें हैं पर इनकी सुनने वाला भी कोई नहीं है. आश्चर्य कि बात तो ये है कि जो मीडिया लोगों कि आवाज़ बुलंद करता है वही मीडिया अपनी आवाज़ नहीं उठा रहा है और लगातार शोषण का शिकार हो रहा है.आज के दौर में पत्रकार पैसे-पैसे के लिए मोहताज़ हो रहे हैं. यही कारण है कि देश का चौथा स्तम्भ कहा जाने वाला मीडिया आज झूठ और बेईमानी का स्तम्भ बनता जा रहा है जो कि एक लोकतान्त्रिक देश के लिए किसी भी दिष्टिकोण से सही नहीं है. मेरे कुछ दोस्त मेरे इन बातों से इत्तेफाक नहीं रखते होंगे पर मैं ये दावे के साथ कहता हूँ कि अगर सारे मीडिया वाले सच में दिल से मेरी बातों पर अमल करेंगे तो मेरी इन
बातों को नकारेंगें नहीं .
                                                                       गजेन्द्र कुमार

Thursday, 18 April 2013

तो क्या सीबीआई की तरह हीं सरकार के अधीन हो जाएगी न्यायपालिका ???


 जजों (न्यायधिशों) की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव लाने का मन सरकार बना चुकी है और इसके लिए जल्द हीं प्रस्ताव् लाने वाली है. सरकार के इस नए प्रस्ताव् के अनुसार जजों (न्यायधिशों) की नियुक्ति प्रक्रिया में अब देश के कानून मंत्री के साथ-साथ राष्ट्रपति द्वारा मनोनित दो कानूनविद भी होंगे. जबकि अभी जजों (न्यायधिशों) की नियुक्ति प्रक्रिया में सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम न्यायधिश लोग ही भाग लेते हैं, जो की जजों की नियुक्ति करतें हैं. सरकार के इस नए प्रस्ताव् के आने के बाद न्यायधिशों की नियुक्ति में सरकार का दखल भी होगा. सरकार अपनी मर्ज़ी के अनुसार न्यायधिशों की नियुक्ति करेगा और उसके बाद सीबीआई की तरह न्यायालय (कोर्ट) भी सरकार की कठपुतली बनकर रह जाएगी. सरकार के खिलाफ कोई भी फैसला देना मुश्किल हो जायेगा. सीबीआई की तरह न्यायालय के फैसलों में भी सरकार की दखलअदाज़ी बढ़ जाएगी.

                                        सरकार के इस कदम से तो यही लगता है की सरकार अब न्यायालय को भी अपने नियंत्रण में करना चाहती है ताकि सरकार के खिलाफ आने वाले फैसले पर विराम लग सके. न्याय में भी हेराफेरी करके सरकार अपने दामन पर लगे भ्रषटचारों के दागों को मिटाना चाहती है. अगर सरकार की मंशा नेक होती तो सरकार सबसे पहले सीबीआई को अपने नियंत्रण से मुक्त करती जिससे सीबीआई स्वतन्त्र होकर अपना काम करती. सीबीआई में सरकार की दखलअदाज़ी किसी से छुपी हुई नहीं है. तमिलनाडु की पार्टी (डी.एम. के) का सरकार से समर्थन वापिसी के तुरंत बाद उसी पार्टी की नेता के दफ्तर पर सीबीआई के छापे पड़ना, कोयला घोटाले में सुप्रीम कोर्ट में रिपोर्ट पेश करने से पहले सीबीआई का सरकार से मिलना, ऐसे कई उदाहरण हैं जो सीबीआई पर सरकार के नियंत्रण को साबित करती है. इस कारण सीबीआई अपना काम सही ढंग से नहीं कर पाती. सीबीआई पर से दिनोदिन लोगों का विश्वास उठता जा रहा है. अगर न्यायालय में भी सरकार का दखल होगा तो स्वाभाविक है की न्याय पर उँगलियाँ उठेगी और धीरे धीरे न्यायालय पर से भी लोगों का विश्वास कम हो जायेगा जो की एक लोकतंत्रिक देश के हित में बिलकुल नहीं होगा .
                               
                                                                                                                                        गजेन्द्र कुमार

Wednesday, 17 April 2013

बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट


बिहार में मीडिया पर दबाव .......भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट

बिहार में राज्य सरकार द्वारा मीडिया पर दबाव की ढेर सारी शिकायतें मिलने के बाद प्रेस काउंसिल औफ इंडिया ने २४ फ़रवरी २०१२ को एक तीन सदस्यीय टीम का गठन किया . इस टीम में राजीव रंजन नाग के अलावा अरुण कुमार और कल्याण बरुआ शामिल थे . राज्य की मीडिया बिरादरी में जारी असंतोष और पत्रकारों को प्रताड़ित और अपमानित किये जाने
की कई सारी घटनाएँ सामने आई है .